Thursday, February 22, 2018

मंत्रविद्या तथा जप रहस्य


मंत्रों की शक्ति  असीम है । यदि साधनाकाल में नियमों का पालन न किया जाए तो कभी-कभी बड़े घातक परिणाम सामने आ जाते हैं । प्रयोग करते समय तो विशेष सावधानी‍ बरतनी चाहिए। मंत्र उच्चारण की तनिक सी त्रुटि सारे करे-कराए पर पानी फेर सकती  है तथा गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन साधक ने अवश्य करना चाहिए।

साधक को चाहिए कि वो प्रयोज्य वस्तुएँ जैसे आसन, माला,  वस्त्र, हवन  सामग्री तथा अन्य नियमों जैसे- दीक्षास्थान, समय और जपसंख्या आदि का दृढ़तापूर्वक  पालन करें,  क्योंकि विपरीत आचरण करने से मंत्र औरउसकी साधना निष्फल हो जाती है। जबकि विधिवत की गई साधना से इष्ट देवता की कृपा सुलभ रहती है। साधना काल में निम्न नियमों का पालन अनिवार्य है।

जिसकी साधना की जा रही हो, उसके प्रति पूर्ण आस्था हो। मंत्र-साधना के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति। साधना-स्थल के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ-साथ साधन का स्थान, सामाजिक और पारिवारिक संपर्क से अलग-अलग हो। उपवास प्रश्रय और दूध-फल आदि का सात्विक भोजन किया जाए तथा श्रृंगार-प्रसाधन और कर्म व विलासिता का त्याग आवश्यक है।

साधनाकाल में भूमि-शयन , वाणी का असंतुलन, कटु-भाषण, प्रलाप, मिथ्या वाचन आदि का त्याग करें और कोशिश मौन रहने की करें।  निरंतर मंत्रजप अथवा इष्ट देवता का स्मरण-चिंतन आवश्यक है।
मंत्रसाधना में प्राय: विघ्न-व्यवधान आ जाते हैं। निर्दोषरूप में कदाचित ही कोई साधक सफल हो पाता है, अन्यथा स्थानदोष, कालदोष, वस्तुदोष और विशेष कर उच्चारण दोष जैसे उपद्रव उत्पन्न होकर साधना को भ्रष्ट हो जाने पर जप तप और पूजा-पाठ निरर्थक हो जाता है। इसके समाधान हेतु आचार्य ने काल, पात्र आदि के संबंध में अनेक प्रकार के सावधानी परक निर्देश दिए हैं।

मंत्रों की जानकारी एवं निर्देश

यदि शाबर मंत्रों को छोड़ दें तो मुख्यत: दो प्रकार के मंत्र है- वैदिकमंत्र  और तांत्रिक मंत्र। जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। तत्पश्चात मंत्र का जप और उसके अर्घ्य की भावना करनी चाहिए। ध्यान रहे, अर्घ्य बिना जप निरर्थक रहता है।

मंत्र के भेद क्रमश: तीन माने गए हैं।
1.वाचिकजप
2. मानसजप और
3.उपाशुजप।

वाचिकजप- जप करने वाला ऊँचे-ऊँचे स्वर से स्पष्ट मंत्रों को उच्चारण कर के बोलता है, तो वह वाचिक जप कहलाता है।

उपांशुजप- जप करने वालों की जिस जप में केवल जीभ हिलती है या बिल्कुल धीमीगति में जप किया जाता है जिसका श्रवण दूसरा नहीं कर पाता वह उपांशु जप कहलाता है।

मानसजप- यह सिद्धि का सबसे उच्चजप कहलाताहै । जप करने वाला मंत्र एवं उसके शब्दों के अर्थ को एवं एक पद से दूसरे पद को मन ही मन चिंतन करता है वह मानसजप कहलाता है। इस जप में वाचक के दंत, होंठ कुछ भी नहीं हिलते है। अभिचार कर्म के लिए वाचिक रीति से मंत्र को जपना चाहिए। शां‍‍‍ति एवं पुष्‍टि कर्म के लिए उपांशु और मोक्ष पाने के लिए मानस रीति से मंत्र जपना चाहिए।

मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र- साधक के बारे में यह बात किसी को पता न चले कि वह किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है। यदि मंत्र के समय कोई पास में है तो मानसिक जप करना चाहिए।

सूर्य अथवा चंद्रग्रहण के समय (ग्रहण आरंभ से समाप्ति तक) किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभ दायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए। और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैसे तो यह सत्य है कि प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है परंतु ग्रहण काल में जप करने से कई सौगुना अधिक फल मिलता है ।विशेषत: नदी में जप हमेशा नाभि तक जल में रह कर ही करना चाहिए।

मनुष्य को अपनी कामना पूर्ति करने के लिए जप-तप मंत्र करना पड़ता है। अतः आप देखें जपसाधना कितने प्रकार से होती है, कैसे की जाती है?

अन्य प्रकार से जप के भेद निम्न हैं ।

1. सगर्भजप- जिस जप को करते समय प्राणायाम किया जाता है वह जप सगर्भ जप कहलाता है।

2. अगर्भजप- जिस जप के पहले एवं अंत में प्राणायाम किया जाए वह जप अगर्भ जप कहलाता है।

मंत्र जप का प्रयोग मंत्र साधना में करना ही चाहिए, परंतु इसका प्रयोग तंत्र एवं यंत्रसाधना में भी बहुत महत्व रखता है। जपों का फल भी जैसे किया जाता है, उसी आधार पर मिलता है। मनुष्य को शीघ्रसिद्धि प्राप्तिके‍ लिए यह जानकारी दे दें कि वाचिक जप एक गुना फल प्रदान करता है, उपांशु जप सौगुना फल देता है। यह जानना बहुत जरूरी है कि मानस जप हजार गुना फल देता है।

मंत्राधिराजकल्प अनुसार 13  प्रकार के जप होते हैं।

*1.कुंभजप :* जप करते समय श्वास को भीतर रोक कर जप किया जाए तो कुंभ जप कहलाता है।

*2.राजसिकजप :* यदि आप वशीकरण के लिए जप कर रहे हैं तो वह राजसिक जप कहलाता है।

3.पूरकजप : यदि आप श्वास को भीतर लेतेहुए जप कर रहे हैं तो पूरक जप कहलाताहै।

4.नादजप : आप जब कर रहे हो और अंदर से भँवरे की भाँति आवाज आ रही है तो नादजप कहलाता है।

5.तामसीजप : मारण एवं उच्चाटन के लिए किया जाने वाला जप तामसीजप कहलाता है।

6.स्थिर कृति जप : आप चल रहे हों और कोई विघ्न आ जाए उसके लिए किया गया जप स्थिर कृति जप कहलाता है।

7.तत्वजप : पृथ्वी , जल,  अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों के अनुसार किया जाने वाला जप तत्व जप कहलाता है।

8.ध्येयैक्य जप : अपनी धैर्यता को रख कर करने वाला जप (ध्याता एवं ध्येय) ध्येयैक्य  जप कहलाता है।

9.ध्यानजप : किसी मंत्रों का अर्थ सहित ध्यान किया जाता है वह ध्यानजप कहलाता है।

10.स्मृतिजप : दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर‍स्थिर कर के मन में जप किया जाए तो स्मृति जप कहलाता है।

11.हक्काजप : श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय विलक्षणतापूर्वक उच्चाटन हो, तो वह हक्का जप कहलाता है।

12.रेचकजप : नाक के नथूनों से श्वास को बाहर निकालते हुए जो जप किया जाए उसे रेचक जप कहते हैं।

13.सात्विकजप : यदि आप किसी शांति कर्म के लिए जप कर रहे तो उसे सात्विक जप के नाम से जाना जाता है।

उपरोक्त जप के प्रकार की जानकारी यहाँ इसलिए दी जा रही हैं ताकि आप जो जप कर है उसकी सही जानकारी आपको हो एवं इसी के साथ किस कर्म के लिए कौन-सा जप करना चाहिए यह महत्वपूर्ण है तभी पूर्ण लाभ मिलेगा।

            आचार्य बालकृष्ण शास्त्री

श्री धाम वृंदावन श्रीमद्भागवत महापुराण प्रवक्ता
9454 603 186

Friday, February 2, 2018

गीता के सन्देश के बड़ा खिलवाड़

अर्थ का अनर्थ कर रहे इसी को मानने वाले

आजकल एक मैसेज  व्हाट्स-एप पर बहुत वायरल हो रहा है , और हर कोई इसे भगवत गीत में लिखा मदिरा/ दारु / अल्कोहल पीने का लाइसेंस मानकर चल रहा है | विशेषकर हिन्दू धर्म के उन लोगों ने ईश्वरीय अवतार श्रीकृष्ण की वाणी का जो अनर्थ निकाल कर इसे फन के रूप में लेकर दिग्भ्रमित किया है वह एक अत्यंत अशोभनीय और घ्रणित कृत्य है| 

ईश्वरीय वाणी के इसी अपमान और और इससे होने वाले दुष्परिणाम जैसे की आजकल घरों में बीयर, मदिरा और बच्चों में इसका बढ़ता चलन तेज़ी से बढ़ रहा है | दोष दिया जा रहा है नई युवा पीढ़ी को …

दोष हमारा है , न संस्कृत का ज्ञान , ना गीता को कभी पढ़ने और समझने का समय …. कम ज्ञान वाले जो लिख दें वही भगवत ज्ञान ….

यह है वह वायरल मैसेज 

दारु पीने वालो के लिए बहुत मुश्किल से खोज के लाया हूं,  भागवत गीता का संदेश हैं।

इसे फॉरवर्ड करते समय क्या आपको यह भी ध्यान नहीं आता कि

क्या एक ईश्वरीय अवतार समाज को मदिरा पीने के लिए प्रेरित करेगा ?

अब आवश्यकता है इस अमूल्य ईश्वरीय वाणी से आलोकित दिव्यग्रन्थ “गीता”  जिसे प्रभु श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण मानवजाति वो चाहे किसी में भी आस्था रखता हो , के लिए दिया था का अर्थ समझे और उसके अपमान का कारण  न बने अपितु उसके सही अर्थ और मर्म  को समझे | 

यह अध्याय नौ के १९-२०वें श्लोक की बात है जहाँ यह प्रस्तुत है | यहं पर गलत टीका यानि की भावार्थ देकर इसका अनर्थ कर दिया गया है कि “वेदों के अध्ययन  साथ सोमरस पीने वाला”  जबकि सही अर्थ कुछ और ही है और वह है :  

यहाँ पर “सोमपा:” शब्द को सोमरस बनाकर इसका अनर्थकिया गया है जबकि सोम यानि संस्कृत में “चन्द्रमा” …

यह देखिये सही क्या है 

चन्द्रमा के क्षीण प्रकाश के स्थान पर ईश्वरीय सूर्य के प्रकाश को देने वाले श्रीकृष्ण क्या  सोमरस पीने को कहेंगे??

बीयर , व्हीस्की, वाइन या अन्य  किसी भी रूप में अल्कोहल निषेध है ,

हिन्दू ही नहीं मित्रों सभी धर्मों में 

 

यदि हम पानी थोड़ी भी बुद्धि लगायें तो यह संदेह अपने आप ही मिट जाएगा | इसलिए आप सभी से निवेदन है की , बिना प्रामाणिकता जाने , अर्थ को समझे किसी भी ऐसे मैसेज को फॉरवर्ड ना करें नहीं तो गीता जो कि ईश्वर की वाणी है , नवनिर्माण करने वाला सन्देश समाज को विनाश तक ले जाएगा | 

लगता है कि कृष्ण की पुनः वापसी होगी तभी यह समाज नए रूप में विकसित होगा नहीं तो लोग तो ईश्वर वाणी को भी विकृत करने में शर्म नहीं कर रहे हैं | ढूंढें कि कान्हा अब इस युग में  कब आयेंगे या आ गए …

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यदि आपने उपरोक्त सन्देश को पढ़ा है और फॉरवर्ड किया है तो

अब इस सही सन्देश को भी फॉरवर्ड करें और अपनी गलती सुधारें |

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मनुष्य और पशु में अंतर‼

   आखिर ऐसा क्या है जो मानव और पशु में अंतर है जिस अंतर के लिए मानव को श्रेष्ठ कहा गया है। हम सब कहते भी है--- बड़े भाग मानुष तन पावा। लेकिन क्यों??
1 घर अगर मानव बनाता है तो पशु भी बनाते है।
2 बच्चे अगर मानव पैदा करते है तो पशु भी करते है।
3 जितना बुद्धि मानव के पास है उससे श्रेष्ठ बुद्धि पशु के पास है क्योंकि पशु अपने स्वार्थ के लिए किसी का नुकशान नही करते है जबकि मानव केवल अपने स्वार्थ के लिए केवल पशु ही नही अपने परिवार को भी नुकशान कर देते है।
    ओर भी कई कारण है जो पशु करते है वो मानव भी करते है। लेकिन एक कारण जो पशु नही केवल मानव कर सकते है और वो है आत्मा को चौरसी से मुक्त करना।
लेकिन मुक्त हो तो कैसे??
मुक्त होंगे जब पुर्नसद्गुरु के शरण में जाएंगे। क्योंकि पुर्नसद्गुरु वो दिव्य ज्ञान देंगे जिससे मानव के भीतर मानवता प्रकट हो जाए तभी तो कहा--- ज्ञानहीन पशु सामना जब तक वो ज्ञान नही मिलेगा तब तक मानव तन पाकर भी पशु के समान ही रहेंगे। मानव जन्म मिल गया इसका ये अर्थ नही की मानवता के गुण भी प्रकट हो गए। अगर मानवता के गुण प्रकट हो गए होते तो इतना अधर्म, पाखंड, कुविचार, दुष्कर्म होता ही नही।
हमारे वेदों में कहा गया-- *मनुर्भव मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो ! मनुष्य बनो।* जब तक पुर्नसद्गुरु के शरण में जाकर वो दिव्यज्ञान नही लिए तब तक मनुष्य बने नही है।

*कोई चोर अगर पुलिश का कपड़ा पहन लें तो वो पुलिश नही हो जाएगा यहिं हाल हम सबका है मानव जन्म प्रभु ने दिया है तो मानव नही कह लाएंगे जब तक दिव्यज्ञान नही ले लेते।*

   ओर ध्यान से क्योंकि जिस तरह मानव जन्म लेकर मानव के गुण प्रकट नही हुए उसी तरह सन्त का चोला पहन लेने से कोई सन्त नही हो जाता है इसलिए जब भी पुर्नसद्गुरु धारण करें तो धार्मिक-ग्रन्थों के आधार पर करें। हमारे धार्मिक-ग्रन्थों में स्प्ष्ट दिया हुआ है *जो हमारे भीतर परमात्मा का साक्षत्कार करा दे तत्क्षण उनके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम
  *अब निर्णय आपको लेना है दिव्यज्ञान लेकर मानव तन के द्वारा आत्मा का कल्याण करना है या पशुओं की तरह बिना लक्ष्य जाने चले जाना है।🙏

  ॐ श्री आशुतोषाय नमः

सनातन धर्म विज्ञान आधारित धर्म

सनातन धर्म विश्व का पहला व सबसे प्राचीन पुरातन धर्म है। कुछ मनीषियों के मत के अनुसार यह धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की संस्कृति है। सनातन धर्म में विभिन्न देवी देवताओं की पूजा होती है और सभी देवता प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़े होते है। सनातन धर्म वास्तव में प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा करने की शिक्षा देता है जो अन्य किसी धर्म संस्कृति में नहीं है। इसलिए हम सनातन धर्म को विज्ञान पर आधारित धर्म कहते व मानते है। क्यों कहते हैं सनातन धर्म को विज्ञान आधारित इसलिए आज हम आपको बताते है कि हमारी परम्पराएँ व हमारा धर्म पूर्णत: विज्ञान पर आधारित है जिसमे अवैज्ञानिक कुछ नहीं है।

१. जनेऊ धारण करना

जनेऊ शरीर के लिए एक्युप्रेशर का काम करता है जिससे कई प्रकार की बीमारियाँ कम होती है। लघु शंका के समय जनेऊ को दायें कान पर लगा लिया जाता है जिससे लीवर और मूत्र सम्बन्धी रोग विकार दूर होते है।

२ . मन्त्र

मन्त्र भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग है जिसे हम पूजा पाठ व यज्ञ आदि के समय प्रयोग करते है। कई मंत्रो से मष्तिष्क शांत होता है जिससे तनाव से मुक्ति मिलती है वही ब्लडप्रेशर नियंत्रण में भी मंत्रो का प्रयोग किया जाता है।

३ . शंख बजाना

प्रत्येक धार्मिक कार्यो पर शंख बजाते है जो सनातन संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। शंख बजाने से जो ध्वनी निकलती है उससे सभी हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते है। शंख मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को भी दूर रखता है साथ ही यह कर्ण सम्बन्धी रोगों से बचाता है। शंख बजाने से श्वास सम्बन्धी रोग भी समाप्त हो जाते है।

४ . तिलक लगाना

माथे के बीच में दोनों आँखों के बीच के भाग को नर्व पॉइंट बताया जाता है जिस कारण यहाँ पर तिलक लगाने से आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता है। इससे किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति बढती है। साथ ही यह मष्तिष्क में रक्त की आपूर्ति को नियंत्रण में रखता है।

५ . तुलसी पूजन

सनातन धर्म में तुलसी को बहुत ही पवित्र माना जाता है जिसका अपना वैज्ञानिक कारण है। तुलसी अपने आप में एक उत्तम औषधि है जो कई प्रकार की बीमारियों से छुटकारा दिलाती है। खांसी, जुकाम और बुखार में तुलसी एक अचूक रामबाण है। घर में तुलसी लगाने से कई हानिकारक जीवाणु और मच्छर आदि दूर रहते है।

६ . पीपल की पूजा

वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चूका है की पूरी पृथ्वी पर एकमात्र पीपल का पेड़ ही 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है। जिस कारण से पीपल का महत्व और भी बढ़ जाता है। इसलिए आज भी पीपल को सींच कर उसकी परिक्रमा की जाती है। पीपल के पत्ते हृदयरोग की ओषधि में भी प्रयोग होते है।

७ . शिखा रखना

आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य सुश्रुत के अनुसार, सिर का पिछला उपरी भाग संवेदनशील कोशिका का समूह है जिसकी सुरक्षा के लिए शिखा रखने का नियम होता है। योग क्रिया अनुसार इस भाग में कुण्डलिनी जागरण का सातवाँ चक्र होता है जिसकी ऊर्जा शिखा रखने से एकत्रित हो जाती है।

८ . गोमूत्र व गाय का गोबर

गाय के मूत्र को सनातन धर्म में पवित्र माना जाता है क्यूंकि गौमूत्र कई भंयकर बीमारियों में रामबाण है। मोटापे के शिकार लोगों के लिए गौमूत्र एक अचूक दवा है साथ ही यह हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। गाय के गोबर का लेप करने से कई हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते है इसलिए पुराने समय में घरो में गोबर से घरो के फर्श लिपे जाते थे।

९ . योग व प्राणायाम

योग व् प्राणायाम का लाभ किसी से छुपा नहीं है। योग व प्राणायाम का आविष्कार भारत के ऋषि मुनियों द्वारा समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए किया गया है। योग से स्ट्रेस व हाइपरटेंशन से मुक्ति मिलती है। मोटापे से लेकर कई जटिल बीमारियों में योग व प्राणायाम लाभकारी है। प्रतिदिन का प्राणायाम श्वास सम्बन्धी सभी रोगों से मुक्ति दिलाता है।

१० . हल्दी का प्रयोग

हल्दी अपने आप में एक उत्तम एंटीबायोटिक है जिसका प्रयोग दुनिया के कई देश कर चुके है और ये सिद्ध कर चुके है की कैंसर जैसे भयंकर रोगों के उपचार में हल्दी एक अचूक औषधि है। हल्दी एक सौन्दर्यवर्धक औषधि भी है जिसका प्रयोग मुहं के दाग धब्बे हटाने व शरीर का रूप निखारने में किया जाता है इसलिए विवाह में एक रस्म हल्दी की भी होती है।

११ . घी के दिए जलाना

दीपावली के समय हम अक्सर घरों की साफ़ सफाई करके दिये जलाते है और रौशनी करते है। दिए जलाने से केवल घर ही नहीं जीवन में भी प्रकाश होता है क्यूंकि दिए जलाने से सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। घी का दिया कार्बन डाईऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों को समाप्त करता है। साथ ही तेल के दिए से हानिकारक कीटाणु भी समाप्त हो जाते है इसलिए वर्षा ऋतु के बाद दीपावली मनाई जाती है क्यूंकि वर्षा ऋतु के बाद कीट कीटाणु बढ़ जाते है।

१२ . दाह संस्कार का कारण

शव को जलाना अंतिम संस्कार का सबसे स्वच्छ उपाय है क्यूंकि इससे भूमि प्रदूषण नहीं होता। साथ ही चिता की लकडियो के साथ घी व अन्य सामग्री प्रयोग की जाती है जिससे वायु शुद्ध होती है। दाह संस्कार के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। एक ही स्थान पर कई दाह संस्कार किये जा सकते है। सनातन हिन्दू धर्म के साथ साथ जैन, बोद्ध व सिक्ख भी इसी प्रकार से दाह संस्कार करते है।

सत्य सनातन धर्म की जय
🙏🙏🙏🙏🙏