मंत्रों की शक्ति असीम है । यदि साधनाकाल में नियमों का पालन न किया जाए तो कभी-कभी बड़े घातक परिणाम सामने आ जाते हैं । प्रयोग करते समय तो विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। मंत्र उच्चारण की तनिक सी त्रुटि सारे करे-कराए पर पानी फेर सकती है तथा गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन साधक ने अवश्य करना चाहिए।
साधक को चाहिए कि वो प्रयोज्य वस्तुएँ जैसे आसन, माला, वस्त्र, हवन सामग्री तथा अन्य नियमों जैसे- दीक्षास्थान, समय और जपसंख्या आदि का दृढ़तापूर्वक पालन करें, क्योंकि विपरीत आचरण करने से मंत्र औरउसकी साधना निष्फल हो जाती है। जबकि विधिवत की गई साधना से इष्ट देवता की कृपा सुलभ रहती है। साधना काल में निम्न नियमों का पालन अनिवार्य है।
जिसकी साधना की जा रही हो, उसके प्रति पूर्ण आस्था हो। मंत्र-साधना के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति। साधना-स्थल के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ-साथ साधन का स्थान, सामाजिक और पारिवारिक संपर्क से अलग-अलग हो। उपवास प्रश्रय और दूध-फल आदि का सात्विक भोजन किया जाए तथा श्रृंगार-प्रसाधन और कर्म व विलासिता का त्याग आवश्यक है।
साधनाकाल में भूमि-शयन , वाणी का असंतुलन, कटु-भाषण, प्रलाप, मिथ्या वाचन आदि का त्याग करें और कोशिश मौन रहने की करें। निरंतर मंत्रजप अथवा इष्ट देवता का स्मरण-चिंतन आवश्यक है।
मंत्रसाधना में प्राय: विघ्न-व्यवधान आ जाते हैं। निर्दोषरूप में कदाचित ही कोई साधक सफल हो पाता है, अन्यथा स्थानदोष, कालदोष, वस्तुदोष और विशेष कर उच्चारण दोष जैसे उपद्रव उत्पन्न होकर साधना को भ्रष्ट हो जाने पर जप तप और पूजा-पाठ निरर्थक हो जाता है। इसके समाधान हेतु आचार्य ने काल, पात्र आदि के संबंध में अनेक प्रकार के सावधानी परक निर्देश दिए हैं।
मंत्रों की जानकारी एवं निर्देश
यदि शाबर मंत्रों को छोड़ दें तो मुख्यत: दो प्रकार के मंत्र है- वैदिकमंत्र और तांत्रिक मंत्र। जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। तत्पश्चात मंत्र का जप और उसके अर्घ्य की भावना करनी चाहिए। ध्यान रहे, अर्घ्य बिना जप निरर्थक रहता है।
मंत्र के भेद क्रमश: तीन माने गए हैं।
1.वाचिकजप
2. मानसजप और
3.उपाशुजप।
वाचिकजप- जप करने वाला ऊँचे-ऊँचे स्वर से स्पष्ट मंत्रों को उच्चारण कर के बोलता है, तो वह वाचिक जप कहलाता है।
उपांशुजप- जप करने वालों की जिस जप में केवल जीभ हिलती है या बिल्कुल धीमीगति में जप किया जाता है जिसका श्रवण दूसरा नहीं कर पाता वह उपांशु जप कहलाता है।
मानसजप- यह सिद्धि का सबसे उच्चजप कहलाताहै । जप करने वाला मंत्र एवं उसके शब्दों के अर्थ को एवं एक पद से दूसरे पद को मन ही मन चिंतन करता है वह मानसजप कहलाता है। इस जप में वाचक के दंत, होंठ कुछ भी नहीं हिलते है। अभिचार कर्म के लिए वाचिक रीति से मंत्र को जपना चाहिए। शांति एवं पुष्टि कर्म के लिए उपांशु और मोक्ष पाने के लिए मानस रीति से मंत्र जपना चाहिए।
मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र- साधक के बारे में यह बात किसी को पता न चले कि वह किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है। यदि मंत्र के समय कोई पास में है तो मानसिक जप करना चाहिए।
सूर्य अथवा चंद्रग्रहण के समय (ग्रहण आरंभ से समाप्ति तक) किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभ दायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए। और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैसे तो यह सत्य है कि प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है परंतु ग्रहण काल में जप करने से कई सौगुना अधिक फल मिलता है ।विशेषत: नदी में जप हमेशा नाभि तक जल में रह कर ही करना चाहिए।
मनुष्य को अपनी कामना पूर्ति करने के लिए जप-तप मंत्र करना पड़ता है। अतः आप देखें जपसाधना कितने प्रकार से होती है, कैसे की जाती है?
अन्य प्रकार से जप के भेद निम्न हैं ।
1. सगर्भजप- जिस जप को करते समय प्राणायाम किया जाता है वह जप सगर्भ जप कहलाता है।
2. अगर्भजप- जिस जप के पहले एवं अंत में प्राणायाम किया जाए वह जप अगर्भ जप कहलाता है।
मंत्र जप का प्रयोग मंत्र साधना में करना ही चाहिए, परंतु इसका प्रयोग तंत्र एवं यंत्रसाधना में भी बहुत महत्व रखता है। जपों का फल भी जैसे किया जाता है, उसी आधार पर मिलता है। मनुष्य को शीघ्रसिद्धि प्राप्तिके लिए यह जानकारी दे दें कि वाचिक जप एक गुना फल प्रदान करता है, उपांशु जप सौगुना फल देता है। यह जानना बहुत जरूरी है कि मानस जप हजार गुना फल देता है।
मंत्राधिराजकल्प अनुसार 13 प्रकार के जप होते हैं।
*1.कुंभजप :* जप करते समय श्वास को भीतर रोक कर जप किया जाए तो कुंभ जप कहलाता है।
*2.राजसिकजप :* यदि आप वशीकरण के लिए जप कर रहे हैं तो वह राजसिक जप कहलाता है।
3.पूरकजप : यदि आप श्वास को भीतर लेतेहुए जप कर रहे हैं तो पूरक जप कहलाताहै।
4.नादजप : आप जब कर रहे हो और अंदर से भँवरे की भाँति आवाज आ रही है तो नादजप कहलाता है।
5.तामसीजप : मारण एवं उच्चाटन के लिए किया जाने वाला जप तामसीजप कहलाता है।
6.स्थिर कृति जप : आप चल रहे हों और कोई विघ्न आ जाए उसके लिए किया गया जप स्थिर कृति जप कहलाता है।
7.तत्वजप : पृथ्वी , जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों के अनुसार किया जाने वाला जप तत्व जप कहलाता है।
8.ध्येयैक्य जप : अपनी धैर्यता को रख कर करने वाला जप (ध्याता एवं ध्येय) ध्येयैक्य जप कहलाता है।
9.ध्यानजप : किसी मंत्रों का अर्थ सहित ध्यान किया जाता है वह ध्यानजप कहलाता है।
10.स्मृतिजप : दृष्टि को नाक के अग्रभाग परस्थिर कर के मन में जप किया जाए तो स्मृति जप कहलाता है।
11.हक्काजप : श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय विलक्षणतापूर्वक उच्चाटन हो, तो वह हक्का जप कहलाता है।
12.रेचकजप : नाक के नथूनों से श्वास को बाहर निकालते हुए जो जप किया जाए उसे रेचक जप कहते हैं।
13.सात्विकजप : यदि आप किसी शांति कर्म के लिए जप कर रहे तो उसे सात्विक जप के नाम से जाना जाता है।
उपरोक्त जप के प्रकार की जानकारी यहाँ इसलिए दी जा रही हैं ताकि आप जो जप कर है उसकी सही जानकारी आपको हो एवं इसी के साथ किस कर्म के लिए कौन-सा जप करना चाहिए यह महत्वपूर्ण है तभी पूर्ण लाभ मिलेगा।
आचार्य बालकृष्ण शास्त्री
श्री धाम वृंदावन श्रीमद्भागवत महापुराण प्रवक्ता
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