लेखक: राजेशार्य आट्टा
वैदिक विद्वानों- आचार्य उदयवीर व डाॅ0 फतहसिंह ने मोहन जोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सील (मुद्रा) पर अंकित एक चित्र को ऋग्वेद के मंत्र (1/164/20) की व्याख्या बताया है, जिसमें प्रकृति रूपी वृक्ष पर आत्मा और परमात्मा नाम के दो पक्षी बैठे हैं। इनमें से एक (आत्मा) वृक्ष के फल खा रहा है, जबकि दूसरा (परमात्मा) केवल देख रहा है। इससे इन्होंने सिंधु सभ्यता को वैदिक सभ्यता सिद्ध कर दिया पर नेहरूजी की सरकार ने इन्हें हतोत्साहित कर दिया। डाॅ0 फतहसिंह ने सिंधु लिपि के 45 अक्षरों की खोज करके 1965 ई0 तक 1500 सिंधु मुद्राओं को पढ़ा और निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सिंधु मुद्राओं की लिपि पूर्व ब्राह्मी है और भाषा वैदिक संस्कृत। वे सिंधु लिपि के ओम्, उमा, इंद्र, अग्नि, मित्र, वरुण आदि वैदिक शब्दों को पढ़ सके। उनका यह भी कहना था कि उपनिषदों के अनेक विचारों को सिंधु मुद्राओं में चित्रित किया गया है। सन 1967 ई0 में उन्हें महाविद्यालय से स्थानांतरित कर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान का 75 वर्ष की अवस्था तक के लिए निदेशक बनाया गया था। जब उन्होंने सिंधु सभ्यता को वैदिक सभ्यता सिद्ध किया तो उन पर दबाव डाला गया कि वे इसे फादर हेरास आदि विदेशी विद्वानों के अनुरूप द्रविड़ सभ्यता ही सिद्ध करें। उनके मना करने पर जनवरी 1970 ई0 (57 वर्ष) में ही उन्हें हटा दिया गया। जब ये अपने गांव जिला पीलीभीत में थे तो खनौत नदी से चांदी के सिक्कों से भरा ताम्रपात्र चरवाहों को मिला था, जिसमें से 20 सिक्के किसी इतिहासप्रेमी अधिकारी ने साफ करवा कर इनके पास भेज दिये। उन्होंने उन पर राम, सीता, लक्ष्मण आदि के नाम व चित्र देखकर उन्हें सिंधु घाटी वाली लिपि में वैदिक सभ्यता सिद्ध करते हुए उत्तर प्रदेश की सरकारी पत्रिका ‘त्रिपथगा’ में लेख भेजें । लखनऊ के सरकारी संग्रहालय में रखे सिक्कों को भी पढ़ने के लिए उनके फोटो मांगे तो इन्हें मना कर दिया गया और त्रिपथगा में इनके लेख छापने बंद कर दिया गया । इसके डाॅ फतेहसिंह ने महाविद्यालयों में व्याख्यान दिये, लेकिन लकीर के फकीर प्रोफेसर इन्हें कोई महत्व नहीं देते थे । उनके लिए विदेशी विद्वान ही सर्वज्ञ थे । डॉ फतेहसिंह ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी ) से सिंधु सभ्यता के वैदिक आधार पर शोध करने के लिए आर्थिक सहायता मांगी तो इन्हें उत्तर मिला कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि के चिन्हों को वैदिक की बजाय द्रविड़ घोषित करो और यह सिद्ध करो कि ऋग्वेद में अशुद्धियां है, इसका पुनर्लेखन होना चाहिए । डाॅ साहब ने लिखा कि "मैं ऋग्वेद के पुनर्गठन पर तो काम नहीं करूंगा, क्योंकि इस पर तो फादर एस्टलर कर रहे हैं, पर मैं ऋग्वैदिक विचारधारा के पुनर्गठन पर काम कर सकता हूँ ।" इस पर उन्हें अनुदान देने से मना करते हुए उत्तर मिला- 'खेद है कि आयोग आपकी योजना को स्वीकार नहीं कर सकता ।' क्योंकि सरकार को चाटुकार चाहिए थे, सच्चे इतिहासकार नहीं ।
शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, जींद, हरियाणा प्रकाशित से साभार 🙏🙏🙏😷😷😷🧐🧐🧐😨😨😨