Thursday, January 9, 2020

कलियुग का पुनीत प्रताप!



कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।
    कलियुग का एक पवित्र प्रताप यह है कि इसमें मानसिक पुण्य तो फलदायी होते हैं; परंतु मानसिक पापों का फल नहीं भोगना पड़ता।  'पुनीत प्रताप' वो इसलिए कि सतयुग, त्रेता व द्वापर युग में जीव को मानसिक पापों का फल भोगना पड़ता था जिसका छूट कलियुग में भरपूर है फिर भी मूढ़ जीव इस युग के पुनीत प्रताप 'मानसिक पुण्य' की ओर भी अग्रसर क्यों नहीं हो पा रहा?शायद वो इसलिए कि....
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना।।
---यह मलिन कलियुग केवल मल का मूल है जिसके कारण उसका पुनीत प्रताप प्रभाव तिरोहित हो जाता है और लोगों के मन पापरूपी समुद्र में मछली की भाँति मग्न रहते हैं और भला मछली जल से कब उपरत रहना चाहेगी। इसीलिए यदि मानसिक पाप की माफी न होती तब तो इस कलिकाल में जीव का उद्धार होना कितना मुश्किल हो जाता?
बस सोच बदल दिया जाय तो वही मन रूपी मछली पापरूपी समुद्र में मग्न रहने के वजाय 'श्रीरामभक्ति रूपी अथाह जलराशि में निमग्न रहेगी और कभी विलग नहीं होगी' जैसा कि दृढ़ निश्चयाभक्ति वाले श्री भुशुण्डि जी महाराज मानस में लोमश जी के समक्ष अपनी बात कहने में तनिक भी नहीं सकुचाते....
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
    श्रीमद्भागवत पुराण के प्रथम स्कंध में कलियुग के प्रसंग में श्री सूत जी ने भी कहा है...
नानुद्वेष्टि  कलिं  सम्राट्  सारङ्ग  इव सारभुक्।
कुशलान्यासु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत्।।
    'भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट परीक्षित् कलियुग से द्वेष नहीं करते थे; क्योंकि कलियुग का एक बड़ा भारी गुण यह है कि इसमें पुण्यकर्म तो मन के संकल्प मात्र से ही फल देनेवाले हो जाते हैं, परंतु पापकर्म संकल्पमात्र से फल नहीं देते। उनका प्रतिफल तो शरीर से करने पर ही मिलता है।'
      महात्मा तुलसीदास जी ने इस कलियुग में जीव के उद्धार का कितना सहज मार्ग बताया है......
कलियुग केवल नाम अधारा।सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
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कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।

तो हम सब श्रीरामचरितमानस में  काकभुशुण्डि जी द्वारा निर्देशित  बात को क्यों नहीं मानते...
    कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहिं त्यागी।।
अर्थात् हे खगेश!(गरुड़ जी) बतलाइये ऐसा कौन अभागा है जो कामधेनु को छोड़कर खरी(गधी) को पालता है? सारांशतः बात यही है कि इस 'पुनीत प्रताप' वाले कलिकाल में मानस-पुण्य का उपार्जन छोड़ मानस-पाप में रमण करना कामधेनु को छोड़कर गधी पालने जैसा ही है।
      कलियुग में मानसिक पाप नहीं लगता , इसका यह अभिप्राय नहीं कि सदा मानसिक पापों में रत रहा जाय। मानसिक पाप नहीं लगते, इस विचार से मनुष्य पापों में मन लगावेगा उसके समान मूर्ख कौन होगा! तो 'सत्य, क्षमा, दया,दान,परोपकार आदि सद्गुणों का बारम्बार चिंतन करना, मन में अपने इष्टदेव का ध्यान,उनका स्मरण और जप का निरंतर अभ्यास इससे बड़ा मानसिक पुण्य और क्या होगा, जिससे मनुष्य का निश्चित ही कल्याण होना है।
सुप्रभातं
सुमंगलं
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सियाराम!!!

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