By:- आनन्द कुमार
भारतीय फिल्मों के इतिहास मे, “मुगले-आज़म” सबसे बड़ी हिट फिल्म थी | जिस 1960 के दौर मे इस फिल्म ने 12 करोड़ रुपये कमाए थे, उसे आज की दर से देखें तो वो करीब 1300 करोड़ होंगे | ये इतनी बड़ी रकम है जितने बाहुबली-2 ने भी नहीं कमाए | उस दौर मे इसे दस करोड़ लोगों ने सिनेमाघर मे जाकर देखा था | “हम आपके हैं कौन” या “बाहुबली” जैसी फिल्मों को 10 करोड़ लोगों ने थिएटर मे नहीं देखा |
ये “मुगले-आजम” शुद्ध रूप से फर्जी सेकुलरिज्म पर बनी कहानी है | इसमें जो दिखाया गया है उसमें से कुछ भी इतिहास नहीं है | अनारकली असलियत मे थी ही नहीं | सलीम कोई प्रेमी नहीं था जिसने मुहब्बत के लिए बाप से जंग लड़ी हो | सलीम ने नूरजहाँ नाम की एक औरत से निकाह किया था | नूरजहाँ के पति को सलीम ने क़त्ल करवा दिया था और उसे उठा लाया था | हिन्दू राजाओं की तरह प्रेम और विवाह कभी मुगलों के लिए महत्वपूर्ण विषय रहा ही नहीं |
लड़कियों को उठा ले जाना उनका अधिपत्य सिद्ध करने का तरीका होता था | अकबर की 300 से अधिक बीवियां थी और 5000 से ऊपर रखैलें | जहाँगीर, शाहजहाँ, सबके हरम मे गुलाम बनाई गई लड़कियों की गिनती हज़ारों मे होती थी | कितनों का बलात्कार करना पड़ा, किसके पिता-भाइयों को क़त्ल करना पड़ा, इन सब से उन्हें कोई ख़ास लेना देना कभी रहा ही नहीं !
“मुगले-आज़म” मे सलीम की माँ, किसी जोधाबाई को दिखाते हैं जो “हिन्दू” है, कृष्ण मंदिर जाती है और अकबर के युद्ध पर रवाना होते समय उसे तिलक भी लगाती है | अहो-महो, आह-वाह करते धूर्त लिबरल लहालोट हो गए, अरे देखो रे ! कितना सेक्युलर था अकबर, हाय मर जावां गुड़ खाके ! सच्चाई ये है कि एक चम्पावती का धर्म परिवर्तन करवा दिया गया था | ये बदल कर हुई मरियम उज़ ज़मान, और यही मरियम सलीम की माँ थी | वो तिलक नहीं लगाती होगी, नमाज़ पढ़ने को बाध्य थी |
किसी को पता नहीं है कि “जोधाबाई” कोई थी भी कभी या नहीं, कोई फर्क भी नहीं पड़ता इस बात से | एक बार हरम मे आ गई तो कोई हिन्दू नहीं रह जाती थी, इस्लाम कबूलना ही एकमात्र विकल्प था | सलीम ने भी कई हिन्दू लड़कियों से शादी की और उनसे इस्लाम कबूलवाया था | एक बार उसकी नजर नूरजहाँ पर पड़ी तो उसे उठा लाने की बात चली | उसके पति ने विरोध किया तो उसको क़त्ल करवा के नूरजहाँ को लाया गया | नूरजहाँ ने अपने पहले पति के कातिल से कोई परहेज नहीं किया |
नूरजहाँ ख़ुशी ख़ुशी सलीम के साथ रहने लगी, सलीम को अफीमची बना दिया और परदे के पीछे से मुग़ल सल्तनत चलाती रही | अब अगर आप सोच रहे हैं कि फिर सलीम अपने बाप से लड़ा क्यों था तो जंग इसलिए हुई थी क्योंकि बाप अकबर जल्दी मर नहीं रहा था | अकबर ने करीब पचास साल शासन किया और सलीम इतने मे अधेड़ हो चला था | उसके बेटे उसे ज्यादा दिन राज नहीं करने देंगे इतनी समझ उसे थी तो उसने बगावत छेड़ दी |
ये जंग कभी मुहब्बत के लिए नहीं लड़ी गई थी, जैसा कि फिल्म मे दिखाते हैं | अकबर लड़ाई मे जीत गया और सलीम को उठा कर जेल मे पटक दिया गया | कुछ महीनों बाद जब अकबर की मौत हुई तो अपनी दादी और माँ की मदद से सलीम बाहर आया | उसने अपने बाकी के भाइयों को क़त्ल किया और बादशाह बन गया | जबतक ये सब होता तबतक सलीम के खुद के बेटे ने उसके खिलाफ बगावत छेड़ दी थी | सलीम ने अपने बेटे को हरा दिया, उसकी आँखें निकलवा ली और उसे जेल मे फेंकवा दिया | कितनी मुहब्बत करने वाले अब्बू थे ना सलीम ?
इस मुगले-आज़म का नतीजा ये हुआ कि भारत की कई पीढ़ियाँ मुगलों को सेक्युलर, लिबरल, दरियादिल, अच्छे शासक मानती बड़ी हुई है | अभी भी अकबर की करतूतें आप बताएँगे तो लोग कहेंगे हाँ, हाँ, उस दौर के सभी राजा ऐसा ही करते होंगे !
आज भी “एक था टाइगर” जैसी फिल्मों मे अपने सल्लू भाई पाकिस्तानी आई एस आई की जासूस के साथ मिलकर आतंकियों से लड़ते और जीतते दिखाए जाते हैं | जबकि सच्चाई ये है कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान तो इस्लामिक आतंक को पोषण और पनाह देने के लिए जाना जाता है ! भारतीय जब जान की बाजी लगाकर किसी इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान वाली को बचाता है तो वो भी बदले मे भारतीय झंडा फहराती है | आह वाह करते सेक्युलर लहालोट ! कसाब को बचाने के लिए भारत के कई लिबरल आधी रात को अदालत खुलवा रहे थे | कुलभूषण जाधव का मुकदमा कौन से पाकिस्तानी लड़ रहे हैं नाम सुना है कभी ?
जब आप का इतिहास “पद्मावती” जैसी फिल्मों से ऐसे ही तोड़ा मरोड़ा जा रहा होता है तो क्या होता है ? बॉलीवुड के सेक्युलर तो आपको मीठी गोली देकर आपकी जेब से अपने लिए करोड़ों कमा रहे ही होते हैं, उधर आई एस आई एस केरल से शांतिप्रिय लोगों को अपनी आतंकी फ़ौज मे भर्ती कर रहा है | इसी फिल्म के करोड़ों से आपपर ही चलाने के लिए पेट पर बम बाँध कर कोई निकलेगा | इसी पैसे से आपको गलत बताने वाले लेखों को लिखने के पैसे दिए जायेंगे |
आपको भाईचारे की टोपी पहना कर जो फिल्म दिखाई जा रही है उसी की कमाई से भाईजान आपका चारा बनाकर चरने वाले हैं | आँखे खोलिए, सड़कों पर नहीं उतरते तो चुपचाप आर्थिक बहिष्कार कीजिये | उनके विरोध मे ढूंढ कर तथ्य निकालिए, लोगों को बताइये | खुद ढूंढ कर बता नहीं सकते तो जो लोग बता रहे हैं उनकी बात दूर तक पहुंचाइये | दूर तक पहुंचा नहीं पा रहे तो अपने घर के लोगों को तो बताइये, उनका विरोध कर रहे लोगों का सामना कीजिये |
आपकी लड़ाई कोई और अकेला कितनी देर लड़ता रहेगा ? कल करेंगे कुछ नहीं होता, आज-अभी शुरू कीजिये !
A loose translation of Facebook post by Dr. Vishnu Vardhan
रानी पद्मिनी के जौहर को इतिहास से मिटा कर “पद्मावती” करने की कुत्सित साजिशों के दौर में याद दिलाते चलें कि तीन जौहर का साक्षी सिर्फ चित्तौड़ ही नहीं रहा। तीन जौहर भोपाल के पास मौजूद रायसेन के दुर्ग की दीवारों ने भी देखे हैं। गौरतलब है कि एक भारतीय राजा के दुसरे पर आक्रमण करने और जीतने पर “जौहर” कभी नहीं हुए। आखिर विदेशी हमलावरों के ही हमले पर “जौहर” क्यों होते थे ? इतिहास को लुगदी साहित्य से नीचे के स्तर पर धकेल ले गए आयातित विचारधारा के पोषक इसका जवाब नहीं देंगे।
सिर्फ वही दोषी हों, ऐसा भी नहीं है। जब उन्होंने “द ग्रेट मुग़ल्स” कहा तो चुप रहकर मुस्कुरा कर सुन लेने वाले भी आतातायियों के महिमामंडन के बराबर के दोषी है। मेरे बस में क्या है, फण्ड नहीं, संस्था नहीं, संगठन नहीं, जैसी सोच के साथ रुके, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वाले भी उतने ही कायर हैं। रायसेन का किला बिलकुल भोपाल के पास है। ऊँची पहाड़ी पर है, और दुर्गम रास्ते से वहां अभी भी पैदल जाना पड़ता है। वहां एक दशक से किसकी सरकार है ये याद दिलाना जरूरी नहीं।
स्थानीय नागरिकों ने वहां जाकर उसकी सौ पचास तस्वीरें इन्टरनेट पर क्यों नहीं डाली, किसने उनका हाथ पकड़ रखा था पता नहीं। मुग़ल हुमायूँ के कारण यहाँ तीन जौहर हुए थे। पहला 1528 में रानी चंदेरी के नेतृत्व में हुआ। मुग़ल सेना के लौटते ही इलाके के लोगों ने फिर मुग़ल हुक्म मानने से इंकार कर दिया। फिर हमला हुआ और लम्बे समय किले की घेराबंदी के बाद रानी दुर्गावती के साथ रायसेन के सात सौ वीरांगनाओं ने 1532 में दूसरी बार जौहर किया, लक्ष्मण तुअर के नेतृत्व में पुरुषों ने साका किया। मुग़ल सेनाओं के लौटते ही फिर बगावत का बिगुल फूंक दिया गया। रानी रत्नावती के नेतृत्व में तीसरा जौहर 1543 में हुआ था।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।। (भगवद्गीता 2.29)
जौहर की बात आते ही भगवद्गीता का श्लोक याद आता है जिसमें कहा गया है कि कोई इसे आश्चर्य की तरह देखता है। कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है फिर कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुन करके भी कोई जानता-विश्वास नहीं कर पाता। रानी चंदेरी, रानी दुर्गावती, रानी रत्नावती और उनके साथ वीरगति को प्राप्त हुई वीरांगनाओं के लिए जो श्रद्धा होती है उसके लिए शब्द कम होंगे।
हाँ, अपने ही इतिहास के प्रति ऐसे गाफ़िल पड़ी कौम के लोगों को भी मेरा पाव भर नमन रहेगा।
✍🏻
आनन्द कुमार
लोकतंत्र की उत्पत्ति (Origins of Democracy )
लोकतंत्र की उत्पत्ति कहा हुई थी ??
इस सवाल का जवाब हमें यूनान बताया गया था पर सच तो यह है की लोकतंत्र भारत में तबसे है जब यूनानी जंगलो में रहते थे ।
कई भारतीय विद्वानों ने कहा की लोकतंत्र की उत्पत्ति भारत में हुई पर इसे हिंदू राष्ट्रवादी सोच कहकर नकार दिया गया ।
अच्छा
यूरोपियन कहते है की कैलेंडर की खोज उन्होंने की ,पहिये की खोज उन्होंने की ,खाने में मसाले का उपयोग भी उन्होंने किया वगेरा वगेरा
वाह रे यूरोपियो
तुम करो तो खोज
और हम करे तो हिंदुत्व की बड़ाई
क्या है की भारत में पुरातात्विक खोज ज्यादा नहीं होती और न ही भारत पुरातत्व से जुड़े कामो में आगे है ,जिस दिन पुरातत्व से जुड़े कामो में भारत आगे बढेगा उस दिन सच सामने आ जायेंगा ।
अब टॉपिक पर आते है
लोकतंत्र राजतंत्र या राजशाही से भी पुराना है ,जब मानव कबीलों में रहते थे तबसे है जबकि राजशाही 5000 ईसापूर्व में शुरू हुआ ।
कबीलों में जो शिकार में माहिर होता उसे ही मुखिया बनाया जाता ,यह एक तरह से लोकतंत्र ही था जिसमे लोग अपने सरदार को चुनते ।
पहले यूनानी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र में फरक जान लेते है ।
युनानी लोकतंत्र
यूनान में लोकतंत्र 500 ईसापूर्व मे शुरू हुआ था और सिकंदर के काल में वहा लोकतंत्र का अंत हुआ।
आज के लोकतंत्र मे नेताओ को चुना जाता है पर प्राचीन यूनान मे चुनाव कुछ खास मुद्दों के लिए होते थे जैसे युद्ध करना चाहिए ?निर्माण कार्य होना चाहिए या नहीं और राज्य चलाने के लिए कुछ खास फैसले होते ।यूनान में सिटीजन और स्लेव यानि गुलाम ऐसे 2 भागो में लोगो को बाटा जाता था ,गुलाम अक्सर दुसरे देश या नगर के होते और सिटीजन के मुकाबले वे अधिक थे ,सिटीजन उसी नगर के मूल लोग होते थे ,यूनान के लोकतंत्र में केवल सिटीजन ही वोट कर सकते ,महिला या गुलाम नहीं यानि 20% लोग ही वोट कर सकते थे ।
यूनान में अरिस्तोतल और सोक्रेत जैसे कई विद्वान हुए जो लोकतंत्र के विरोधी थे और मानते थे की लोकतंत्र भ्रष्ट लोगो के हाथ है ।
भारतीय लोकतंत्र
लोकतंत्र भारत मे नहीं बल्कि पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एक साथ फला फुला ।
ऋग्वेद में सभा और समिति का जीकर है जिसमे राजा मंत्रियो और विद्वानों से सलाह मशवरा किया करते और फैसले लेते ।
महाभारत में युधिष्ठिर बताते है की संघ या गणराज्य की शक्ति होती है उसके लोगो की एकता ,एक बार एकता टूटी तो गणराज्य का अंत ।
वैशाली के पहले राजा विशाल को भी चुनाव द्वारा चुना गया था ।
पाणिनि ने भी गणराज्यो का जीकर किया है ।
बोद्ध और जैन ग्रंथ गणराज्य का उल्लेख करते है ।
इन सबूतों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप में लोकतंत्र 3000 ईसापूर्व पुराना है और अगर पुरातात्विक साबुत देखे तो 700-600 ईसापूर्व जो यूनान से पहले का ही है ।
चाणक्य अर्थशास्त्र में लिखते है की गणराज्य 2 तरह के होते है ,पहला अयुध्य गणराज्य यानि की ऐसा गणराज्य जिसमे केवल क्षत्रिय ही फैसले लेते है ,दूसरा है श्रेणी गणराज्य जिसमे हर कोई भाग ले सकता है ।
यूनानी लोकतंत्र से कई गुना बेहतर था भारतीय लोकतंत्र ।
योधेय गणराज्य में 5000 राजा होते जिन्हें लोग ही चुनते और वे राज्य सँभालते थे ,लिच्छवी गणराज्य जो नेपाल और बिहार में था वह प्राचीन काल का सबसे शक्तिशाली गणराज्य था ,उसमे 7707 राजा थे ।
कहते है की सम्राट अजातशत्रु को लिच्चावियो को हराने के लिए काफी परिश्रम करना पड़ा ।
अजातशत्रु से युद्ध से पहले लिछावियो ने सभा बुलाई थी ।
कई यूनानी इतिहासकार जो भारत आए थे वे भी गणराज्य और संघ का जीकर करते है ।
यूरोपी विद्वानों के सवाल के जवाब
यूरोपियन प्राचीन भारतीय लोकतंत्र में खोट निकालते है की भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं ,जातिवाद के कारण हर एक को चुनाव का हक्क नहीं ।
साथ ही चुनाव आदि का उल्लेख है पर चुनाव से जुड़े लोगो के हक्को का वर्णन नहीं ।
यह कमी तो यूनानी लोकतंत्र की भी है ,क्या वह लोकतंत्र नहीं ??
यूरोपियन कई बात अनदेखी कर रहे है साथ ही जिन ग्रंथो का यूरोपियन उल्लेख कर रहे है जैसे अर्थशास्त्र और मनुस्मृति उनके कुछ भाग बाद में जोड़े गए वो भी तब जब राजतंत्र था ।
पहले बता दू की जातिवाद का प्राचीन भारत के लोकतंत्र से कोई लेना देना नहीं ।
कहते है की शाक्य गणराज्य ने कोलियो पर हमला किया था ,युद्ध से पहले सभा में बात चित हुई थी और बहुमत युद्ध को मिला ,फिर पुरे शाक्य गणराज्य में घोषणा हुई की जितने भी युवक 20 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र वाले है वे युद्ध के लिए तैयार हो जाये ,यानि हर वर्ग या वर्ण के लोगो को युद्ध में भाग लेने के लिए कहा था ।
जब कोशल ने शाक्य गणराज्य पर हमला किया था तब भी शाक्यो ने सभा बुलाई थी ,कोशल ने सीधे कपिलवस्तु पर हमला किया था और तब हर स्त्री पुरुष ने मिलकर कोशल के सेनिको से युद्ध किया था ।
नन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य दासीपुत्र थे पर फिर भी उन्होंने राज किया ,तब कहा गया जातिवाद ??
सिंधु नदी किनारे शूद्रक नाम का गणराज्य था जिसे महाभारत का शुद्र राज्य कहा जाता है ,उसने भी सिकंदर से युद्ध किया था ,कहा है जातिवाद ??
अग्रेय गणराज्य ने भी सिकंदर से युद्ध किया था ,कहते है यही अग्रवाल समुदाय की उत्पत्ति हुई थी और अग्रवाल बनिए होते है यानि वैश्य वर्ण से ,यानी उनका भी गणराज्य था ।
इसमें जातिवाद कहा है ??
सम्राट अशोक ने करुवाकी से शादी की थी जो मच्वारे की लड़की थी ,देवी से शादी की जो वैश्य वर्ण से थी ,अशोक ने भी वर्ण या जाती अनुसार विवाह नहीं किया था यानि उस समय जातिवाद नहीं था ।
यूनान में स्त्रियों को वोट देने का हक्क नहीं था पर भारत में था ।कलिंग को भी एक गणराज्य कहा गया है और कलिंग युद्ध के वक़्त कलिंग के लोगो ने पद्मावती को अपनी रानी चुना था ताकि वह नेतृत्व कर सके युद्ध में ,साथ में कलिंग युद्ध में स्त्रीयों ने भी भाग लिया था ।
पद्मावती भी कलिंग के सभा की सदस्य थी और उसे भी वोट देने का हक्क था ।
यूरोपियन इन तथ्यों को क्यों अनदेखा करते है ??
इन सबूतों से पता चलता है की गणराज्यो में जातिवाद नहीं था और महिलाओ को भी समान हक्क था ।
जय माँ भारती
भारत ! भरतखण्ड-जम्बूद्वीप ! यह वह देश है जहां गण के साथ-साथ राष्ट्र जैसे विचारों का उदय हुआ और धरती को मां कहने का भाव जागा। पूरी सप्तद्वीपा पृथ्वी पर इसको कर्मभूमि के रूप में जाना गया, अन्य सभी को भोग भूमि के रूप में संबोधित किया गया है।
यह विचार इतना उदात्त और सर्वतोभावेन था कि ऋषिमना रचनाकारों ने देवगणों के मुखारविंद से इस भूमि का यशोगान करवाया। गुप्तकाल पूर्व रचे गए विष्णुपुराण में इस मातृभूमि के यश के रूप में पराशर को स्वीकारना पड़ा-
गायन्ति देवा: किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति
भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।
कर्माण्य संकल्पित तत्फलानि
सन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिंल्लयं
ये त्वमला: प्रयान्ति।। (विष्णु्. द्वितीयांश, 3, 24-25)
यही मान्यता मार्कण्डेय पुराणकार की है। अार्षरामायण, अध्यात्म रामायण में आई है। शिवपुराणकार ने भी इस मान्यता को यथारूप उद्धृत किया है। बहुत मायने रखती है भारतीय संस्कृति की यह स्वीकारोक्ति। संस्कृत में निबद्ध ये विचार कालजयी है, संस्कृत की तरह ही सार्वकालिक हैं, जैसा कि प्रो. एचएच विल्सन ने भी स्वीकारा था -
यावद्भारतवर्षं स्याद्यावद्विन्ध्य हिमालयौ।
यावद्गंगा च गोदा च तावदेव हि संस्कृतम्।।
अनेकानेक खोजें देने वाला, अनेकानेक मान्यताओं की बुनियाद रखने वाला और सहिष्णुता जैसे मूल्य का पोषक यह राष्ट्र सच में अपने मूल्यों के लिए महनीय है....।
- श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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