Saturday, June 29, 2019

कविवर बारोट श्री चंद बरदाई

जन्म 30 सितंबर 1149
*ज्येष्ठ वद द्वादशी विक्रम संवत 1205* लाहौर पाकिस्तान

बलिदान 15 मार्च 1206 माघ सुद पंचमी (वसंत पंचमी) विक्रम संवत 1249 गज़नी

हिन्दी साहित्य के वीर गाथा कालीन कवि तथा पृथ्वीराज चौहानके मित्र थे। उन्होंने अपने मित्र का अन्तिम क्षण तक साथ दिया।

जीवनी

चंदबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था, वह जाति से बारोट ( भाट ) थे । बाद में वह अजमेर-दिल्ली के सुविख्यात हिंदू नरेश पृथ्वीराज के सम्माननीय सखा, राजकवि और सहयोगी हो गये थे। इससे उसका अधिकांश जीवन महाराजा पृथ्वीराज चौहानके साथ दिल्ली में बीता था। वह राजधानी और युद्ध क्षेत्र सब जगह पृथ्वीराज के साथ रहे थे। उसकी विद्यमानता का काल 13 वीं शती है। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थानमें ब्रज भाषाका पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को ब्रजभाषा हिन्दीका प्रथम महाकवि माना जाता है।

'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है अंत: इसका रचना काल सं. 1220 से 1250 तक होना चाहिए। विद्वान 'रासो' को 16वीं अथवा उसके बाद की किसी शती का अप्रमाणिक ग्रंथ मानते हैं। हिन्दी के पहले कवि चंदबरदाई को हिंदी के पहले कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है।पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें 10,000 से अधिक छंद हैं और तत्कालीन प्रचलित 6 भाषाओं का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में उत्तर भारतीय क्षत्रिय समाज व उनकी परंपराओं के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व है। वे भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के मित्र तथा राजकवि थे। पृथ्वीराज ने 1165 से 1192 तक अजमेर व दिल्ली पर राज किया। यही चंदबरदाई का रचनाकाल भी था।

गोरी के वध में सहायता

इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्धमें, आखेट में, सभा में, यात्रा में, सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। यहां तक कि मुहम्मद गोरी के द्वारा जब पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके एवं उन्हे बंदी बना करके गजनी ले जाया गया तो ये भी स्वयं को वश मे नही कर सके एवं गजनी चले गये। ऐसा माना जाता है कि कैद मे बंद पृथ्वीराज को जब अन्धा कर दिया गया तो उन्हें इस अवस्था में देख कर इनका हृदय द्रवित हो गया एवं इन्होंने गोरी के वध की योजना बनायी। उक्त योजना के अंतर्गत इन्होंने पहले तो गोरी का हृदय जीता एवं फिर गोरी को यह बताया कि पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण चला सकता है। इससे प्रभावित होकर मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की इस कला को देखने की इच्छा प्रकट की। प्रदर्शन के दिन चंद बरदायी गोरी के साथ ही मंच पर बैठे। अंधे पृथ्वीराज को मैदान में लाया गया एवं उनसे अपनी कला का प्रदर्शन करने को कहा गया। पृथ्वीराज के द्वारा जैसे ही एक घण्टे के ऊपर बाण चलाया गया गोरी के मुँह से अकस्मात ही "वाह ! वाह !!" शब्द निकल पड़ा !

बस फिर क्या था चंदबरदायी ने तत्काल एक दोहे में पृथ्वीराज को यह बता दिया कि गोरी कहाँ पर एवं कितनी ऊँचाई पर बैठा हुआ है। वह दोहा इस प्रकार था

चार बाँस चौबीस गज , अंगुल अष्ट प्रमान !

ता ऊपर सुल्तान है , मत चूके चौहान !!

इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। इनके द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है।

शत शत नमन महान कविवर को.

Friday, June 28, 2019

ऋषि अगस्त्य 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की एक खास बात

निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।

महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता

अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

भामाशाह


जन्म 29 अप्रैल 1547 या
*28 जून 1547 चित्तौडग़ढ़

मृत्यु 16 जनवरी 1600

भामाशाह के पिता का नाम भारमल था। कावडिय़ा ओसवाल जैन समुदाय से सम्बद्ध थे। माता कर्पूर देवी ने बाल्यकाल से ही भामाशाह का त्याग, तपस्या व बलिदान सांचे में ढालकर राष्ट्रधर्म हेतु समर्पित कर दिया।

बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रतापके मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे। आपको मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए आपका नाम इतिहास में अमर है।

जीवनी

दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल 1547 को हुआ। कुछ विद्वानों के हिसाब से भामाशाह का जन्म 28 जून 1547 में मेवाड़ की राजधानी चित्तौडग़ढ़ में हुआ था !

मुगलों के साथ निरन्तर युद्ध करते रहने से महाराणा प्रताप का सारा धन समाप्त हो गया था। सेना छिन्न-भिन्न हो गई थी। महाराणा प्रताप सोच में पड़ गए। सोचने लगे धनाभाव में मेवाड़ की रक्षा कैसे कर सकेंगे ? महाराणा प्रताप के सामने विकट समस्या थी। कठिनाइयों से घिरे महाराणा प्रताप को मन:स्थिति देख भामाशाह के दिल में स्वामिभक्ति का भाव जागा। वे अपना सारा धन छकड़ों में भरकर महाराणा प्रताप के पास पहुंचे।

महाराणा प्रताप नामक पुस्तसक में लेखक लिखते हैं भामाशाह जितना धन दे रहे थे उस धन से बीस हजार सैनिक को 14 वर्ष तक का वेतन दिया जा सकता था।

भामाशाह की त्याग भावना एवं धन को देखकर उपस्थित सामंत दंग रह गए।भामाशाह के त्याग व स्वाभिमान को देखकर महाराणा प्रताप स्तब्ध रह गए।

महाराणा प्रताप ने कहा भामाशाह तुम्हारी देशभक्ति, स्वामिभक्ति और त्याग भावना को देखकर में अभिभूत हूं परन्तु एक शासक होते हुए मेरे द्वारा वेतन के रूप में दिए गए धन को पुन: में कैसे ले सकता हूं ? मेरा स्वाभिमान मुझे स्वीकृति नहीं देता।

भामाशाह ने निवेदन किया स्वामी यह धन मैं आपको नहीं दे रहा हूं। आप पर संकट आया हुआ है। मातृभूमि की रक्षार्थ मेवाड़ की प्रजा को दे रहा हूं। लडऩे वाले सैनिकों को दे रहा हूं। आप पर संकट आया हुआ है मातृभूमि पर संकट आया हुआ है। धन के अभाव में आप जंगलों में इधर-उधर घूम रहे हैं। कष्ट भोग रहे हैं और मैं आराम से घर बैठ कर इस धन का उपयोग करूं, यह कैसे संभव है ? मातृभूमि पराधीन हो जाएगी। मुगलों का शासन हो जाएगा तब यह धन किस काम आएगा ? अत: आपसे आग्रह है कि आप इस धन से अस्त्र-शस्त्रों एवं सेना का गठन कर मुगलों से संघर्ष जारी रखें।

अन्य सामन्तों एवं सहयोगियों ने भामाशाह की बात का समर्थन किया। सभी ने एक मत से आग्रह किया कि संकट के समय प्रजा से धन लेना गलत नहीं है। सामन्तों के आग्रह पर महाराणा प्रताप ने भामाशाह के धन से सैन्य संगठन प्रारम्भ किया। मेवाड़वासियों, वीरों में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति जागी। अकबर को चुनौती का सामना करने के लिए मातृभूमि की रक्षार्थ मैदान में उतर आए रण भैरवी बज उठी।शंख ध्वंनि पुन: गूंजने लगी। दिवेर के युद्धमें महाराणा प्रताप ने विजय पाई। अकबर की सेना भाग खड़ी हुई। मालपुरा और कुंभलमेर पर भी महाराणा प्रताप ने अधिकार कर लिया। भामाशाह कर्मवीर योद्धा का 16 जनवरी 1600 को देवलोकगमन हुआ।

भामाशाह की छतरी महासतिया आहाड़ उदयपुर में गंगोदभव कुंड केठीक पूर्व में स्मृतियों के झरोखों के रूप में स्थित हैं।

सर्वस्व दृष्टि से भामाशाह मेवाड़ उद्धारक के रूप में स्मरण योद्धा है।

आपका निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्मायक साबित हुआ। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। आपने यह सहयोग तब दिया जब महाराणा प्रताप अपना अस्तित्व बनाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते भटक रहे थे। आपने मेवाड़ के अस्मिता की रक्षा के लिए दिल्ली गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया।

महाराणा प्रताप को दी गई आपकी हरसम्भव सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी।

भामाशाह अपनी दानवीरता के कारण इतिहास में अमर हो गए। भामाशाह के सहयोग ने ही महाराणा प्रताप को जहां संघर्ष की दिशा दी, वहीं मेवाड़ को भी आत्मसम्मान दिया। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी। तब भामाशाह की दानशीलता के प्रसंग आसपास के इलाकों में बड़े उत्साह के साथ सुने और सुनाए जाते थे , महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे २५००० सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उसने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।

आप बेमिसाल दानवीर एवं त्यागी पुरुष थे। आत्म सम्मान और त्याग की यही भावना आपको स्वदेश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले देश-भक्त के रुप में शिखर पर स्थापित कर देती है। धन अर्पित करने वाले किसी भी दान दाता को दानवीर भामाशाह कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है। आपकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे। आपके लिए पंक्तियां कही गई है !

वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला !

उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला !!

लोकहित और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है।

भामाशाह का जीवनकाल ५२ वर्ष रहा

उदयपुर, राजस्थान में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है। जैनमहाविभूति भामाशाह के सम्मानमें ३१ दिसम्बर २००० को ३ रुपये का डाक टिकट जारी किया गया।

शत शत नमन ऐसे महान दानवीर को।

Thursday, June 27, 2019

भोपाल विशेष

"राजा भोज ही हैं भोपाल के प्रतीक पुरुष

भोपाल  नगर निगम के प्रतीक चिन्ह में मछली है, जो नबाबी काल में भी था, वह अब तक चल रहा था....

आज उसकी जगह राजाभोज को प्रतीक रखने का प्रस्ताव आया तो नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस पार्षद सगीर ने न केवल इसका विरोध किया बल्कि राजा भोज को लुटेरा तक कहा ....

इतिहास यह है कि गौंड राजा की सेवा मेें किराए की सेना का सूबेदार दोस्त मोहम्मद अफगानिस्तान से आया था और उसने दगाकर सत्ता हथिया ली और जगदीशपुर को इस्लामनगर बना दिया और भोपाल के किले को फतेहगढ़....

दोस्त मोहोम्मद के वशंज आखिरी नबाब हमीदुल्ला ने 1947 में भारत के खिलाफ षडयंत्र रचा और हैदराबाद के निजाम के साथ पाकिस्तान में शामिल होने के लिए इंदौर के होल्कर और जोधपुर के बालक राजा को मिला लिया था...

सरदार पटेल ने उसे भोपाल में ही नजरबंद कर भारत संघ में शामिल होने के लिए दस्तखत करने पर विवश कर दिया। इसके बावजूद भोपाल रियासत के भारत संघ में विलय के लिए विलीनीकरण आंदोलन चलाना पड़ा।

भोपाल आबादी का एक हिस्सा अब भी भोपाल को नबाबी काल से ही शुरू होना मानता है और आखिरी नबाब के कई परिजन पाकिस्तान चले गए... जो यहां रह गए वे भी राजा भोज से लेकर रानी कमलापत तक को भोपाल का नहीं मानते....

हकीकत यह है कि राजा भोज न्याय, कला, साहित्य, कीर्ति और शानदार अतीत के प्रतीक हैं, वही भोपाल के असली प्रतीक पुरुष हैं"
😨😨😨🤕🤕🤕🤯🤯🤯

Monday, June 24, 2019

चौरासी लाख योनियों का रहस्य!


हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है।

कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।

सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है।

अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।

आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं।

अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।

हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है।

मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है।

मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है।

विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।

एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है।

इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे।

महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे।

ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो।

इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।

हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है।

हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है।

स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।

पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:

जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव

अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।

जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है। जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख) 
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)

पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००

अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था!! आदेश 🚩🔱🔥📿❇🔴🔵🌸🏵🦚