ये है वह संविधान इसमें कोई ऊपर नहीं जा सकता ।
एक महाराज मनु का संविधान है जिसमें - वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।
संविधान से शुद्र शुद्र ही रहेगा युगों युगों तक , लेकिन मनु महाराज के संविधान से शुद्र भी ब्राह्मण बन जाते हैं । 21 शुद्र ऋषियों के उल्लेख मिलते हैं वेदों में और जिनके मन्त्रों और श्लोकों को वेदों और शास्त्रों में स्थान दिया गया ।
इन ऋषियों को शुद्र नहीं बोला गया है , बल्कि ऋषि , मुनि और ब्राह्मण शब्द से संबोधित किया गया है ।
इनके श्लोकों को उन्हीं ब्राह्मणों ने शास्त्रों में स्थान दिया जिन पर आरोप लगाया जाता है कि ब्राह्मणों ने शूद्रों को पढ़ने नहीं दिया और मन्त्र सुनते ही कान में शीशा पिघला कर डालकर मार डालते थे।
सूत जी पूरी भागवत सुना देते हैं , तब उनके कानों में शीशा पिघला कर नहीं डाला गया । सूत जी ने अपने 6 ब्राह्मण शिष्य बनाये , तब उनके कान में शीशा पिघला कर नहीं डाला गया और न ही उन्हें किसी ने कुँए से पानी लेने को मना किया ।
नैमिषारण्य में हज़ारों ऋषियों ने यज्ञ प्रारम्भ किया तो जो समय बच जाता था वह सूत जी से कथा सुनकर और उनको ऊँचे आसान पर व्यासपीठ पर बिठाकर , स्वयं सारे ब्राह्मण नीचे बैठकर उनका सम्मान करते थे , तब किसी ने भी सूत जी के कानों में शीशा नहीं पिघलाया और न ही कूवें से पानी लेने को मना किया ।
फिर उन्हीं सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा को भी सभी ब्राह्मणों और ऋषियों ने व्यासपीठ पर बिठाया लेकिन अब भी उनके कानों में कोई शीशा नहीं पिघला रहा है ।
पहले वेदों के मंत्रों या श्लोकों का उच्चारण इतनी ज़ोर ज़ोर से और सभी ब्राह्मण इतने उच्च स्वर से करते थे कि आकाश गुंजायमान हो जाता था ।
इसका क्या कारण था ??
ये भगवान को नहीं सुनाते थे ! भगवान तो मन में भी चल रहा होगा , वह भी सुन लेते हैं ।
इसका एकमात्र कारण यही था कि सभी लोग इन वेद मंत्रों को सुनकर उनके सिद्धांत , शिक्षाओं को सुनकर ( मैं कौन , मेरा लक्ष्य क्या है , मुझे क्या पाना है , किसको पाना है , वह कैसे मिलेगा , हमें क्या करना चाहिए ) इत्यादि जानकर मनुष्य कल्याण मार्ग पर चल पड़े और अपना कल्याण करे ।
चूंकि उस समय की भाषा वैदिक संस्कृत ही थी , और सभी संस्कृत समझते थे तो यह सबके लिए ग्राह्य था ।
उस उच्चारण में वह यह नहीं देखते थे कि इसको कोई शुद्र या किसी अन्य जाति सुन लेगा ! अरे इसका उद्देश्य ही यही होता था ।
वहाँ कोई शीशा पिघलाकर कान में डालने नहीं जाता था जैसा वामी इतिहासकारों ने ज़हर घोला है ।
जाबाल नामक नीच कुल की कन्या का पुत्र सत्यकाम का उपनयन संस्कार गौतम ऋषि ने किया और उन्हें वेद इत्यादि की शिक्षा देकर ऋषि बना दिया । उन्हीं नीच कुल के ऋषि से शिक्षा ग्रहण कर और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर अनेक ब्राह्मण ऋषियों ने अपना कल्याण किया ।
लेकिन किसी भी ब्राह्मण ऋषि ने सत्यकाम के कानों में शीशा पिघला कर नहीं डाला ।
ऐतरेय ऋषि जिन्होंने ऐतरेय उपनिषद की रचना की , वह शुद्र थे । लेकिन उनके पुस्तक को न किसी ने जलाया और न ही उनके कानों में शीशा पिघला कर डाला गया ।
ऐलूष ऋषि , पृषध , धृष्ट , गृत्स्मद, गृत्समती , वीतहव्य, इत्यादि किसी के कानों में शीशा पिघला कर नहीं डाला गया बल्कि आज इनके लिखे हुए वचन शास्त्र कहलाते हैं।
मातंग ऋषि चाण्डालपुत्र थे , लेकिन इनका शिष्यत्व अनेक ब्राह्मणों ने किया और इनको व्यासपीठ पर सुशोभित किया । न ही इनको किसी ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए हत्या की और न ही इनके कानों में पिघला शीशा डाला गया ।
ये वामी इतिहासकार और अंग्रेज हमें बहकाते गए और हम अपने ही शास्त्रों को बिना पढ़े जलाते गए और सेक्युलर के कीड़े से कटवाकर अपना पूर्ण विनाश कर लिया ।
ब्राह्मणों के प्रति इतना विद्वेष इतना ज़हर फैलाया गया कि वह आज लोगों के रग रग में व्याप्त हो गया है।
ब्राह्मण आज हर समाज का punching bag है जो सबकी गालियों और सबके थपेड़े सह रहा है । यह वह जीवित प्राणी है जिस पर हर युग में अत्याचार हुआ है । जितनी भी कथाएँ आप पढेंगे , उसमें जितने भी राक्षस , या बाहर से विदेशी आते हैं सबसे पहले वह ब्राह्मणों का विनाश करते हैं , उनकी हत्यायें करते हैं , क्योंकि ये जानते हैं बस इनका विनाश कर दो तो पूरी संस्कृति और सभ्यता का विनाश स्वयमेव हो जाएगा उनको ज्यादा मेहनत की ज़रूरत नहीं पड़ेगी ।
यही काम मैक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफील्ड , मैकाले इत्यादि ने किया ।
अगर आप समझे तब ठीक है , नहीं मानना तब आप अपना विनाश स्वयं आमंत्रित कर रहे हैं ।
धन्यवाद
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