1970--80 की फिल्मों की शुरुआत गायत्री मंत्र से होती थी,, जब हीरो को कुछ होता था तो हिरोईन हाथ में दीपक लेकर किसी देव प्रतिमा के आगे नाचती थी,, फिर आखिर में देव के हाथ से ज्योति निकलती और वहाँ हॉस्पिटल में पड़े हीरो के शरीर में प्रवेश कर जाती और वो तुरंत आंख खोल देता,,
उन्हीं दिनों में #रामायण और #महाभारत जैसे सीरियलों की शुरुआत हुई,, लोग घर खेत के कार्य छोड़कर tv से चिपक जाते,, उस समय #यूसुफ खान को भी #दिलीप कुमार नाम से फिल्में करनी पड़ती थी।
तब तक नेहरू के द्वारा आयातित वामपंथ सक्रिय हो चुका था,, उन्होंने फिल्मों और सीरियलों में मिलावट की प्रक्रिया को शुरू किया। फ़िल्म में हीरो का मुस्लिम मित्र सच्चा और पक्का दिखाया जाने लगा,, ब्राह्मण को गद्दार और ढोंगी पाखंडी दिखाना शुरू किया गया।
रामायण और महाभारत के प्रतिपक्ष में #अलिफ-लैला जैसे धारावाहिको का प्रचार प्रसार किया गया,, हीरोइनें हीरो की जान बचाने के लिए दरगाह पर मन्नत मांगने लगी,, कोई मुसीबत में होता उसके लिए हाथ उठा कर दुआ दी जाने लगी।
प्रेम के सीन में पीछे से #आजान कि आवाजें आने लगी,,
हवस का पुजारी जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया,, जबकि हवस का मौलवी या फ़ादर भी तो हो सकता था।
Water और prachad जैसी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया जैसे सारी बुराइयां हिन्दू समाज में ही हैं,,
न्यूज़ चैनलों के माध्यमों से प्रचलित किया गया कि प्याज की,, या पेट्रोल की,या दालों की कीमतें सातवें आसमान पर, जबकि सातवां आसमान सिर्फ #इस्लाम और #क्रिश्चनिटी में मानते हैं,,सनातन परंपरा में एक अखंड आकाश है।
Pk जैसी फिल्में,, और सत्यमेव जयते जैसे चर्चित कार्यक्रमों के माध्यम से मानसिकता को उस और मोड़ा गया,,और हम सोचते रहे कि क्या रक्खा है इस दकियानूसी सोच में,, सब बराबर हैं, सब महान हैं,, सब एक हैं।
आज उन सब बातों का परिणाम है हमारे देश में सेकुलरिज्म का बोलबाला,,,धर्म से विमुखता,,,कन्हैया जैसे, स्वरा भास्कर जैसे और तमाम प्रकार के बुद्धिजीवि उसी प्रकार के प्रचार प्रसार का उत्पाद है,,, जागरूक रहें, आपस में खाली समय में पड़ोसियों की चुगली, ताश के खेल, शराब की बोतल, क्रिकेट मैच, बकवास फिल्मों से समय बचाकर धर्म संस्कृति की चर्चा करें, बच्चों को अपने महापुरुषों के बारे में बताएं। कोई भी बदलाव धीरे-धीरे ही होता है हर कार्य समय माँगता है।
#जय हिंद
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