Wednesday, March 31, 2021

राष्ट्र की प्रथम महिला चिकित्सक

 #आनंदीबाई_जोशी जी की #१५६वीं_जन्मजयंती पर सादर नमन व भावभीनी श्रद्धांजलि।*
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आनंदीबाई जोशी का जन्म १८६५ में पुणे महाराष्ट्र में हुआ। मात्र ९ वर्ष की अवस्था में २० साल बड़े विधुर से विवाह हुआ। मात्र १४ वर्ष में बेटे को जन्म दिया लेकिन इलाज के अभाव में बेटे की मौत हो गई। तभी डाक्टर बनने का संकल्प लिया। अनेकानेक अड़चनों व रूकावटों को पार कर १८८६ अमेरिका में डाक्टर की डिग्री ली और कोल्हापुर के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में डाक्टर बनी।

आनंदीबाई को डाक्टर बनाने में उनके पति का बहुत बड़ा हाथ था। आनंदीबाई जोशी जी अमेरिका जाने वाली प्रथम हिंदू महिला थी। कादम्बिनी गांगुली को भी प्रथम महिला चिकित्सक माना जाता हैं क्योंकि ये कादम्बिनी जी के साथ डिग्री हासिल करने के बाद २७ फरवरी १८८७ में स्वर्गवासी हो गई।

*शुक्र ग्रह के जोशी क्रेटर को इन्हीं का नाम दिया गया है।*

*✍#प्रेमघन......🙏💖*

*✍प्रेमघन......💖*

अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने की सच्चाई क्या है?

हजारों साल से शूद्र दलित मंदिरों मे पूजा करते आ रहे थे पर अचानक 19वीं शताब्दी मे ऐसा क्या हुआ कि दलितों को 5 साल मंदिरों मे प्रवेश नकार दिया गया?

क्या आप सबको इसका सही कारण मालूम है?

या सिर्फ़ ब्राह्मणों को गाली देकर मन को झूठी तसल्ली दे देते हो?

पढ़िये, सुबूत के साथ क्या हुआ था उस समय!

अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने की सच्चाई क्या है?

यह काम पुजारी करते थे कि मक्कार अंग्रेज़ों के लूटपाट का षड्यंत्र था?

1932 में लोथियन कॅमेटी की रिपोर्ट सौंपते समय डॉ० अंबेडकर ने अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने का जो उद्धरण पेश किया है, वह वही लिस्ट है जो अंग्रेज़ों ने कंगाल यानि ग़रीब लोगों की लिस्ट बनाई थी; जो मन्दिर में घुसने देने के लिए अंग्रेज़ों द्वारा लगाये गए टैक्स को देने में असमर्थ थे!

#षड्यंत्र...

1808 ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी पुरी के जगन्नाथ मंदिर को अपने क़ब्ज़े में लेती है और फिर लोगों से कर वसूला जाता है, तीर्थ यात्रा के नाम पर!

चार ग्रुप बनाए जाते हैं!
और चौथा ग्रुप जो कंगाल हैं, उनकी एक लिस्ट जारी की जाती है!

1932 ई० में जब डॉ० अंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं, तो वे ईस्ट इंडिया के जगन्नाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज़ों की लिस्ट को अछूत बनाकर लिखते हैं!

भगवान जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा-कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला!

जिससे अरबों रुपये सीधे अंग्रेज़ों के ख़ज़ाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे!

श्रृद्धालु यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था!

प्रथम श्रेणी = लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री)

द्वितीय श्रेणी = निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री)

तृतीय श्रेणी = भुरंग (यात्री जो दो पैसा  दे सके)

चतुर्थ श्रेणी = पुंज तीर्थ (कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो पैसा  भी नहीं, तलाशी लेने के बाद)

चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हैं!

1. लोली या कुस्बी!
2. कुलाल या सोनारी!
3.मछुवा!
4.नामसुंदर या चंडाल
5.घोस्की
6.गजुर
7.बागड़ी
8.जोगी
9.कहार
10.राजबंशी
11.पीरैली
12.चमार
13.डोम
14.पौन
15.टोर
16.बनमाली
17.हड्डी

प्रथम श्रेणी से 10 पैसा !
द्वितीय श्रेणी से 5 पैसा !
तृतीय श्रेणी से 2 पैसा 
           और 
चतुर्थ श्रेणी से कुछ नहीं!

अब जो कंगाल की लिस्ट है, जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नहीं घुसने दिया जाता था!

आप यदि उस समय 10 पैसा खर्च कर सकते है, तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जाओगे!

डॉ० अंबेडकर ने अपनी Lothian Commtee Report में इसी लिस्ट का ज़िक्र किया है और कहा कि कंगाल पिछले 100 साल में कंगाल ही रहे...l

बाद में वही कंगाल षडयंत्र के तहत अछूत बनाये गए!

हिन्दुओं के सनातन धर्म में छुआछुत बैसिक रूप से कभी था ही नहीं!

यदि ऐसा होता तो सभी हिन्दुओं के श्मशान घाट और पिंडदान के घाट अलग अलग होते!

और मंदिर भी जातियों के हिसाब से ही बने होते और हरिद्वार में अस्थि विसर्जन भी जातियों के हिसाब से ही होता!

ये जातिवाद ईसाई और मुसलमानों में है इन में जातियों और फ़िरक़ों के हिसाब से अलग-अलग चर्च और अलग-अलग मस्जिदें और अलग-अलग क़ब्रिस्तान।

हिन्दुओं में जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, धर्मनिपेक्षवाद, जडवाद, कुतरकवाद, गुरुवाद, राजनीतिक पार्टीवाद पिछले 1000 वर्षों से मुस्लिम और अंग्रेज़ी व कॉन्ग्रेसी शासकों ने षडयंत्र से डाला है!

#षडयंत्रों_को_समझो_हिन्दुओं...

Forwarded as received
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Monday, March 15, 2021

विष्णुगुप्त विश्वविद्यापीठा

ही छायाचित्रे #कर्नाटकातील #गोकर्ण 
(महाबळेश्वर) येथे उभारलेल्या "विष्णुगुप्त विश्वविद्यापीठा"चे आहे. या विद्यापीठातील 'गुरुकुल संकुल' उंचीवरून असे दिसते.
नामशेष झालेल्या प्राचीन 'तक्षशिला' विद्यापीठाचे हे जणू पुनर्निर्माण आहे, असं त्याचे प्रवर्तक प.पू. आचार्य राघवेश्वर भारती म्हणतात.
आपल्या गुरुकुल पद्धतीने, पारंपारिक भारतीय विद्या आणि कला (सुद्धा) इथे शिकवल्या जाणार आहेत. गुरुकुलाच्या आकारावरून त्याचा 'स्वभाव' उघड होतोच आहे. इथे भारतीय गोष्टींची (इंग्रजीतून) टिंगल करण्याची सोय नाही.  इथे भारतीय गोष्टी नुसत्या 'चालतील' असे नाही; तर अभिमानाने मिरवल्या जातील.
नुकतेच, गेल्या वर्षी सुरु झालेले हे विद्यापीठ आता कोरोना संकट ओसरल्यावर किती गती घेते, बघूया.
An initiative of Sri RamachandrapuraMatha, established at Ashoke in Gokarna to preserve, promote & propagate the whole gamut of Ancient Bharatiya systems of knowledge & arts. The students here not only become scholars in Dharma, Shastra and ancient Bharatiya knowledge&art forms, but also become patriots and soldiers of Dharma. Knowledge& skills required in the contemporary world are also provided. Vishnugupta VishwaVidyapeetham shall be the only one of its kind where all the Bharatiya Vidyas are studied under a single roof. People irrespective of their age, caste, gender can study here

Monday, March 8, 2021

एक साधारण परिवार की 3 बहुएं, जिनके नामों की कभी चर्चा नही की जाती।

वे हैं-
 01 - सौ. यशोदा गणेश सावरकर जी, 
02 - सौ. यमुना विनायक सावरकर जी एवं 
03 - सौ. शांता नारायण सावरकर जी।
        इन साधारण प्रतीत होने वाली असाधारण नारियों ने प्रचंड विस्फोटक क्षमता युक्त बम अपने पेट से बांधकर स्वयं को गर्भवती होने का नाटक किया।
यह इतनी बडी जोखिम उठाकर उसी अवस्था में कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) जाकर क्रांतिकारियों को सफलता पूर्वक वह बम पहुंचा दिया।
स्वातंत्र्यवीर श्री. विनायक दामोदर सावरकर जी को निरंतर दो बार आजन्म सश्रम (पचास वर्षीय) कारावास (काले पानी की) शिक्षा सुनाई जाने के बाद उनके परिवार की तीन महान देशभक्त क्रांतिकारी नारियों को क्रूर अंग्रेज अधिकारियों ने उनके अपने ही घर से निकाल दिया।
इन महान अद्वितीय क्रांतिकारी शूरवीर माताओं को मेरा सादर प्रणाम।
आज महिला दिन निमित्य उन्हें अभिवादन करना हम जैसे प्रत्येक भारतीय नागरिक का परम कर्तव्य है।
विनम्र अभिवादन।
सादर प्रणाम।
 वंदे मातरम्।🚩

Wednesday, March 3, 2021

आवश्यक है अल्पसंख्यक को परिभाषित करना!



*[इस समय देश में चर्चा छिड़ी हुई है कि क्या अनेक राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक क्यों न सिद्ध किया जाये। कश्मीर, पंजाब, उत्तर पूर्वी राज्यों में हिन्दुओं की संख्या कम हैं। फिर भी उसे अल्पसंख्यक के नाम पर मिलने वाले किसी भी सुविधा से वंचित रखा जाता हैं। इस समस्या पर प्रसिद्द लेखक शंकर शरण जी का लेख पढ़ने योग्य हैं।* ]

(शंकर शरण- साभार दैनिक जागरण )
अल्पसंख्यक मुद्दे पर वही हुआ जो दशकों से होता आया है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में अल्पसंख्यक अवधारणा को स्पष्ट करने की गुहार लगाई गई थी ताकि सरकारी कामकाज में विभिन्न स्तरों पर इसकी आड़ में हो रही मनमानी और अन्याय पर विराम लगाया जा सके। परंतु जैसा अब तक का अनुभव है कि यहां एक खास मतवाद या समुदाय से संबंधित कोई उचित काम करने में भी तंत्र के सभी अंग हीलाहवाली ही करते हैं। 
इसमें भी वही हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने इसे परिभाषित करने का काम अल्पसंख्यक आयोग को सौंप दिया मानो वही संविधान का व्याख्याता हो! जबकि संविधान में मौजूद ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को केवल संसद या सुप्रीम कोर्ट ही परिभाषित कर सकते हैं। यह भी कितनी दु:खद स्थिति है कि जो कोर्ट मामूली से मामूली मुद्दे पर भी खुद निर्णय करता है, वह एक संवैधानिक उपबंध से जुड़ी और दशकों से चली आ रही गड़बड़ी पर फैसला सुनाने से कन्नी काटता है। 

वस्तुत: यह भी इस समस्या की गंभीरता का ही संकेत है। भारत में यह ऐसी समस्या है जिससे तमाम अन्य समस्याएं जुड़ी हैं। उपनिषद की भाषा में कहें तो इसके समाधान में हमारी कई जटिल समस्याओं के समाधान की कुंजी है। पर सत्ता के सभी अंग इस पर खुलकर सोचने से बचते हैं जबकि देश का जनमत चाहता है कि ‘अल्पसंख्यक’ और ‘बहुसंख्यक’ की परिभाषा तथा विकृति से जुड़ी कानूनी विषमता दूर होनी चाहिए, क्योंकि इसी अस्पष्टता की आड़ में यहां विभिन्न दल, देसी-विदेशी संगठन और एक्टिविस्ट भारी गड़बड़ करते रहे हैं। 
ऐसा न तो दुनिया में अन्य किसी देश में है, न ही यह हमारे मूल संविधान में था।

समकालीन विमर्श में अल्पसंख्यक शब्द का आशय संकीर्ण हो चला है। जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता वाली समिति ने सरकारी दस्तावेज में ‘अल्पसंख्यक’ और ‘मुसलमान’ शब्दों को एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किया था। ऐसी समझ मूल संविधान की नहीं थी। फिर भी पिछली संप्रग सरकार ने इसकी अनदेखी कर सच्चर समिति की अनुशंसाएं लागू करने का फैसला किया। ऐसे नजरिये ने देश में दो प्रकार के नागरिक बना दिए हैं जिससे ‘कानून के समक्ष समानता’ का संवैधानिक पहलू गौण हो गया है। 
कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के शीर्ष पुलिस अधिकारी ने बेधड़क कहा था कि वह समुदाय को देखकर ही ¨हसा संबंधी घटनाओं पर कार्रवाई करते या नहीं करते हैं। राजनीतिक बिरादरी की भी यही स्थिति है। इससे नागरिक समानता का मखौल उड़ता है। यह सब ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को कानूनी तौर पर अस्पष्ट छोड़ देने से ही हुआ। यह भी अभूतपूर्व स्थिति है कि किसी देश में अल्पसंख्यक को वह अधिकार मिलें जो बहुसंख्यक को नहीं हैं। 

पश्चिमी लोकतंत्रों में ‘माइनॉरिटी प्रोटेक्शन’ का लक्ष्य होता है कि किसी के अल्पसंख्यक होने के कारण उसे किसी अधिकार से वंचित न रहना पड़े जो दूसरों को सहज प्राप्त है। भारत में इस अवधारणा को ही उलट दिया गया है जहां अल्पसंख्यकों के लिए विशेषाधिकारों की बात होती है। यह विकृति भारत में नागरिकों को दो किस्मों में बांट देती है। 
एक वे जिसके पास दोहरे अधिकार हैं और दूसरे वे जिन्हें एक ही तरह के अधिकार हैं जो पहले के पास भी हैं। यह हमारे देश और समाज के लिए घातक साबित हुआ है जो समाज के कई वर्गो में जहर घोल रहा है।

सच तो यह है कि भारत में इस अवधारणा की जरूरत ही नहीं थी जो यूरोपीय समाजों में नस्लवादी या सामुदायिक उत्पीड़न के इतिहास से पैदा हुई है। जबकि भारत में अंग्रेजी राज के दौरान भी ऐसा नहीं था। यहां तो गोरे अंग्रेजों, यानी अल्पसंख्यकों को ही अति-विशिष्ट अधिकार हासिल थे! उससे पहले, मुगल शासन में भी अगर कोई वंचित समुदाय था तो वह बहुसंख्यक हिन्दू ही थे जिन्हें जजिया जैसा धार्मिक कर देना पड़ता था। ऐसे में अव्वल तो ‘अल्पसंख्यक संरक्षण’ की अवधारणा ही भारत में मतिहीन होकर अपना ली गई, जिसका कोई संदर्भ यहां नहीं था। फिर भी, जब इसे पश्चिम से ले ही लिया गया तो वहां भी इसका यह अर्थ कतई नहीं कि अल्पसंख्यकों को ऐसे विशेषाधिकार दे दिए जाएं तो कथित बहुसंख्यक के पास न हों। 
इससे जुड़ी तीसरी गड़बड़ी यह है कि संविधान या कानून में ‘बहुसंख्यक’ का कहीं उल्लेख नहीं है। इस कारण उसका कानूनी तौर पर अस्तित्व ही नहीं है! यह विचित्र विडंबना है, क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती। जब लिखित धाराओं के अर्थ पर ही भारी मतभेद होते हैं तब जो अलिखित है उस मोर्चे पर दुर्गति का अनुमान ही लगाया जा सकता है। इसीलिए ‘बहुसंख्यक’ के रूप में कोई कुछ भी समङो, वह हमारे संविधान में कहीं नहीं है। यहां अनेक राजनीतिक, कानूनी गड़बड़ियां इसी कारण पनप रही हैं।

यहां कोई मुस्लिम या ईसाई व्यक्ति भारतीय नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में अधिकार रखता है, किंतु एक हिन्दू केवल नागरिक के रूप में। बतौर हिन्दू वह अदालत से कुछ नहीं मांग सकता, क्योंकि संविधान में हिन्दू या बहुसंख्यक जैसी कोई मान्यता ही नहीं है। नि:संदेह, हमारे संविधान निर्माताओं का यह आशय नहीं था, किंतु कुछ बिंदुओं पर ऐसी रिक्तता और अंतर्विरोध के कारण आज यह दुष्परिणाम देखना पड़ रहा है। 
जैसे- संविधान की धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में धर्म, नस्ल, जाति और भाषा, यह चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल धर्म और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर हो ? 
यह अनुत्तरित है। अत: जब तक इसे स्पष्ट न किया जाए, तब तक ‘अल्पसंख्यक’ नाम पर होने वाले सारे कृत्य अनुचित हैं। यह न केवल सामान्य बुद्धि, विवेक एवं न्यायिक दृष्टिकोण, बल्कि संवैधानिक भावना से भी अनुचित हैं।

आज अल्पसंख्यकों के नाम पर जारी मनमानियां संविधान निर्माताओं के लिए अकल्पनीय थीं। वे सभी के लिए समान अधिकारों के हिमायती थे। चूंकि संविधान में अल्पसंख्यकों की परिभाषा अधूरी रह गई जिसका दुरुपयोग कर नेताओं ने अपने हित साधने शुरू कर दिए। यह अन्याय मूलत: सत्ता की ताकत और लोगों की अज्ञानता के कारण होता रहा। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि एक मूल प्रश्न पूरी तरह और आरंभ से ही उपेक्षित है कि बहुसंख्यक कौन है ?

ऐसे में अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव हो जाती है, क्योंकि ‘अल्प’ और ‘बहु’ तुलनात्मक अवधारणाएं हैं, एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता।
इसका सबसे सरल और निर्विवाद समाधान यह है कि संसद में एक विधेयक पारित कर वैधानिक अस्पष्टता दूर कर दी जाए। यह घोषित किया जाए कि संविधान की धारा 25 से 30 में वर्णित अधिकार सभी समुदायों के लिए समान रूप से सुनिश्चित करने के लिए दिए गए थे, यही उनका आशय है। ऐसी कानूनी व्यवस्था से किसी अल्पसंख्यक का कुछ नहीं छिनेगा, बल्कि दूसरों को उनका वह हक मिल जाएगा जो उनसे सियासी छल करके छीन लिया गया। 

यदि हमारी संसद, सुप्रीम कोर्ट या केंद्रीय मंत्रिपरिषद इसे समाप्त कर दें तो तमाम सामुदायिक भेद-भाव, सांप्रदायिकता और देशघाती, वोट-बैंक राजनीति के खत्म होने का मार्ग खुल जाएगा .!!
*(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं स्तंभकार हैं)*


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