Saturday, September 28, 2019

कैलाश पर्वत चाइना में क्यों हैं?

कई लोग यह सवाल पूछते हैं। जब शिव की पूजा करने वाले भारत में हैं तो उन्होंने चीन में रहना क्यों पसंद किया? वो भी ऐसा देश जो हमारा दुश्मन है। कैलाश यात्रा के दौरान यह सवाल मेरे भी दिमाग में था।

यह तस्वीर तीन दिन की पैदल कैलाश परिक्रमा के बाद उस जगह की है जहां से आगे का रास्ता बस से पूरा करते हैं। भोर के अंधेरे में करीब दो-ढाई घंटे चलने के बाद जब यहां पहुंचते हैं तो उस समय सूर्योदय हो रहा होता है। पीछे सूरज की रोशनी में चमकता हुआ जो पहाड़ दिख रहा है वो भारत में है। गाइड ने बताया कि ये आदि कैलाश है। दरअसल धरती पर कुल पांच कैलाश हैं, जिन्हें 'पंच कैलाश' कहा जाता है। कैलाश मानसरोवर मुख्य है, बाकी चारों वो हैं जहां के बारे में मान्यता है कि वहां कभी शिव प्रकट हुए थे। कैलाश और आदि कैलाश की हवा में दूरी  मुश्किल से 100 किलोमीटर है। तिब्बत के स्थानीय लोग आदि कैलाश की यहीं से खड़े होकर पूजा करते हैं।

हमारी किताबों में लिखा गया है कि कैलाश मानसरोवर कभी भी भारतीय भूभाग का हिस्सा नहीं रहा। इसलिए 1947 में जब देश आजाद हुआ तो इस हिस्से को भारत की सीमा में नहीं लाया गया। यह बात भी हमारी इतिहास की किताबों में लिखे गए ढेरों झूठों में से एक है। कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के सेनापति जनरल जोरावर सिंह ने इस पूरे इलाके को जम्मू कश्मीर स्टेट का हिस्सा बनाया था। बंटवारे के समय भी तकनीकी रूप से यह जगह जम्मू कश्मीर का हिस्सा थी। चूंकि अंग्रेजों को इस इलाके में कोई दिलचस्पी नहीं थी उन्होंने अपने नक्शे में इसे जगह नहीं दी थी।

बंटवारे के बाद भी कैलाश को भारतीय सीमा में मिलाना बहुत मुश्किल नहीं था। क्योंकि तब यह No man's land था। चीन भी यहां नहीं था। जवाहरलाल नेहरू अगर हिंदू होते तो उन्हें इस जगह का महत्व पता होता। लेकिन जिस तरह से ननकाना साहिब, करतारपुर साहिब और शारदा पीठ जैसे पवित्र स्थान जमीन पर बहुत पास होकर भी दूर कर दिये गये उसी तरह कैलाश-मानसरोवर भी हमसे दूर चला गया । जनरल जोरावर सिंह की समाधि कैलाश मानसरोवर क्षेत्र  में ही हैं । तिब्बत के लोग उनकी पूजा करते हैं । उन्हें भारत का नेपोलियन कहा जाता है। लेकिन उनकी कहानी इतिहास की किताबों से गायब चर दिया गया, ताकि नेहरू जी की महानता पर कोई सवाल न उठे। पहले कैलाश जाने वाले यात्रियों को जोरावर सिंह की समाधि पर ले जाया जाता था, लेकिन इस साल से चीन सरकार ने इसे बंद कर दिया है।                                        जैसा कि सैम पित्रोदा ने कहा हैं कि "हुआ तो हुआ" इसलिए अब इस पर अफसोस कर के कोई फायदा नहीं। चीन हमारे कैलाश मानसरोवर का अच्छे से ध्यान रख रहा है । उसने यहाँ आसपास निर्माण पर रोक लगा रखा है। कैलाश भारत में होता तो हम उसे कचरे का ढेर बना चुके होते । मानसरोवर के किनारे सैकडों घाट बना चुके होते और इसकी तलहटी में हमारा मलमूत्र जमा होता रहता । कैलाश शिव जी का घर है, लेकिन सर्दियों में वो काशी आ जाते है । देखते ही होंगे कि वहा पर क्या हाल कर रखा है । जब हम एक समाज के तौर पर इस योग्य नहीं होंगे कि हम शिव जी के पवित्र स्थान को संभेल सके तो मुझे पूरा भरोसा है कि सीमायें टूटते समय नहीं लगेगा । भगवान शिव जी भी उस दिन का जरूर इंतजार कर रहे होंगे ।               🙏🙏🙏👏👏👏

कलश स्थापना की सबसे सही और सरल विधि.

*नवरात्रि के कलश स्थापना की सबसे सही, सरल और प्रामाणिक विधि..*

*कलश स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री :-*

जौ बोने के लिए मिटटी का पात्र
साफ़ मिट्टी
मिटटी का एक छोटा घड़ा
कलश को ढकने के लिए मिट्टी का एक ढक्कन
गंगा जल
सुपारी
1 या 2 रुपए का सिक्का
आम की पत्तियां
अक्षत / कच्चे चावल
मोली / कलावा / रक्षा सूत्र
जौ (जवारे)
इत्र (वैकल्पिक)
फुल और फुल माला
नारियल
लाल कपडा / लाल चुन्नी
दूर्वा घास

*कलश स्थापना विधि :-*

नवरात्रि में कलश स्थापना देव-देवताओं के आह्वान से पूर्व की जाती है। कलश स्थापना करने से पूर्व आपको कलश को तैयार करना होगा जिसकी सम्पूर्ण विधि इस प्रकार है...

सबसे पहले मिट्टी के बड़े पात्र में थोड़ी सी मिट्टी डालें। और उसमे जवारे (जौ) के बीज डाल दें।

अब इस पात्र में दोबारा थोड़ी मिटटी और डालें। और फिर बीज डालें। उसके बाद सारी मिट्टी पात्र में डाल दें और फिर बीज डालकर थोड़ा  सा जल डालें।

(ध्यान रहे इन बीजों को पात्र में इस तरह से लगाएं कि उगने पर यह ऊपर की तरफ उगें। यानी बीजों को खड़ी अवस्था में लगाएं और ऊपर वाली लेयर में बीज अवश्य डालें।)

अब कलश की दीवाल पर ॐ या स्वास्तिक बनाकर उस पात्र की गर्दन पर मौली (कलावा) बांध दें। साथ ही तिलक भी लगाएं।

इसके बाद कलश में गंगा जल भर दें।

इस जल में सुपारी, इत्र, दूर्वा घास, अक्षत और सिक्का भी दाल दें।

अब इस कलश के अंदर के किनारों पर चारो तरफ 5 अशोक या आम के पत्ते रखें और कलश को ढक्कन से ढक दें। कलश के ढक्कन में साफ चावल भर दें।

अब एक कच्चा नारियल लें और उसे लाल कपड़े या लाल चुन्नी में लपेट लें। चुन्नी के साथ इसमें कुछ पैसे भी रखें।

इसके बाद इस नारियल और चुन्नी को रक्षा सूत्र (कलावा) से बांध दें।

तीनों चीजों को तैयार करने के बाद सबसे पहले जमीन को अच्छे से साफ़ करके उसपर मिट्टी का जौ वाला पात्र रखें। उसके ऊपर मिटटी का कलश रखें और फिर कलश के ढक्कन पर नारियल रख दें।

आपकी कलश स्थापना संपूर्ण हो चुकी है।
इसके बाद सभी देवी देवताओं का आह्वान दोनों हाथों को जोड़कर अपनी भाषा में भावना करें कि..

*” हे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के समस्त देवी देवता आप सभी नौ दिन के लिए कृपया मेरे घर मे मेरे इस कलश में विराजमान हों “*

हाथ जोड़कर कलश में वरुण देवता का आह्वान करें :-

*ॐ तत्वा यामि ब्रह्मणा वंदमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।*
*अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश गुं समा न आयुः प्र मोषीः॥*

अब हाथ जोड़कर कलश में आवाहित देवी-देवताओं को प्रणाम करें।

कलश के जल में सम्पूर्ण देवी-देवताओं के आह्वान के लिए हाथ जोड़े हुये निम्नलिखित मंत्र का भी उच्चारण करें :-

*ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः कंठे रुद्रः समाश्रितः ।*
*मूले त्वस्य स्थतो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥*

*कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुंधराः ।*
*अर्जुनी गोमती चैव चंद्रभागा सरस्वती ॥*

*कावेरी कृष्णवेणी च गंगा चैव महानदी ।*
*ताप्ती गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा ॥*

*नदाश्च विविधा जाता नद्यः सर्वास्तथापराः ।*
*पृथिव्यां यान तीर्थानि कलशस्तानि तानि वैः ॥*

*ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः ॥*
*अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः ।*

*अत्र गायत्री सावित्री शांति पुष्टिकरी तथा ॥*
*आयान्तु देवपूजार्थं दुरित क्षयकारकाः ।*

*गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ॥*
*नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन्‌ सन्निधिं कुरु ।*

*नमो नमस्ते स्फटिक प्रभाय सुश्वेतहाराय सुमंगलाय ।*
*सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधनाथाय नमो नमस्ते ॥*

इस प्रकार देव आह्वान करने के बाद ये मानते हुए कि सभी देवता गण कलश में विराजमान हो गए हैं।
अब कलश की पूजा करें। कलश को टीका करें , अक्षत चढ़ाएं , फूल माला अर्पित करें , इत्र अर्पित करें , नैवेद्य यानि फल मिठाई आदि अर्पित करें, इस तरह विधिवत नवरात्रि में कलश पूजन करें।

इस कलश को आपको नौ दिनों तक मंदिर में ही रखे देने होगा। बस ध्यान रखें सुबह-शाम आवश्यकतानुसार पानी डालते रहें।
कलश को सुख समृद्धि , ऐश्वर्य देने वाला तथा मंगलकारी माना जाता है। कलश के मुख में भगवान विष्णु , गले में रूद्र , मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में देवी शक्ति का निवास माना जाता है।

नवरात्री के समय ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तियों का घट (कलश) में आह्वान करके उसे स्थापित किया जाता है।
इससे घर की सभी विपदा दायक तरंगें नष्ट हो जाती है तथा घर में सुख शांति तथा समृद्धि बनी रहती है।

*देवी माँ की चौकी की स्थापना और पूजा विधि..*

लकड़ी की एक चौकी को गंगाजल और शुद्ध जल से धोकर पवित्र करें।
साफ कपड़े से पोंछ कर उस पर लाल कपड़ा बिछा दें।
इसे कलश के दायी तरफ रखें।
चौकी पर माँ दुर्गा की मूर्ति अथवा फ्रेम युक्त फोटो रखें।
माँ को चुनरी ओढ़ाएँ।
धूप , दीपक आदि जलाएँ।

नौ दिन तक जलने वाली माता की अखंड ज्योत जलाएँ।
देवी मां को तिलक लगाए ।
माँ दुर्गा को वस्त्र, चंदन, सुहाग के सामान यानि हलदी, कुमकुम, सिंदूर, अष्टगंध आदि अर्पित करें ।
काजल लगाएँ ।
मंगलसूत्र, हरी चूडियां , फूल माला , इत्र , फल , मिठाई आदि अर्पित करें।
श्रद्धानुसार दुर्गा सप्तशती के पाठ , देवी माँ  के स्रोत , सहस्रनाम भजन कीर्तन आदि का पाठ करें।
देवी माँ की आरती करें।
पूजन के उपरांत वेदी पर बोए अनाज पर जल छिड़कें।

रोजाना देवी माँ का पूजन करें तथा जौ वाले पात्र में जल का हल्का छिड़काव करें। जल बहुत अधिक या कम ना छिड़के । जल इतना हो कि जौ अंकुरित हो सके। ये अंकुरित जौ शुभ माने जाते है। । यदि इनमे से  किसी अंकुर का रंग सफ़ेद हो तो उसे बहुत अच्छा माना जाता है। यह दुर्लभ होता है।

*नवरात्री में कन्या पूजन –*

महाअष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन किया जाता है। कुछ लोग अष्टमी के दिन और कुछ नवमी के दिन कन्या पूजन करते है। परिवार की रीति के अनुसार किसी भी दिन कन्या पूजन किया जा सकता है।

दो साल से दस साल तक आयु की कन्याओं को तथा साथ ही बटुक या लांगुरिया (छोटा लड़का) को खीर , पूरी , हलवा , चने की सब्जी आदि खिलाये जाते है।

नवरात्री के नौ दिन माँ दुर्गा के आशीष प्राप्ति के लिए जप , ध्यान , भक्ति आदि के लिए सर्वश्रेष्ठ दिन माने जाते हैं।
यदि नवरात्री में माँ दुर्गा का पूजन , हवन , ध्यान , जप आदि विधिवत ना कर पायें तो कन्या पूजन करके माँ का आशीष प्राप्त किया जाता है।
इसकी विधि सरल है और इसमें किसी विशेष मन्त्र या अनुष्ठान की जरुरत नहीं होती।

छोटी लड़कियों को आदर पूर्वक बुलवाकर पूजन , भोजन आदि की व्यवस्था करके आशीर्वाद लेने से परिवार में सुख समृद्धि बढ़ती है , दुःख दरिद्रता दूर होते हैं , रोगों से मुक्ति मिलती है , शत्रु कमजोर होता है , अटका हुआ काम हो जाता है  तथा मनोकामना पूर्ण होती है।

*महानवमी , विसर्जन और जवारे..*

महानवमी के दिन माँ का विशेष पूजन करके पुन: पधारने का आवाहन कर, स्व स्थान विदा होने के लिए प्रार्थना की जाती है। कलश के जल का छिड़काव परिवार के सदस्यों पर और पूरे घर में किया जाता है ताकि घर का प्रत्येक स्थान पवित्र हो जाये।

अनाज के कुछ जवारे माँ के पूजन के समय चढ़ाये जाते है। कुछ जवारे दैनिक पूजा स्थल पर रखे जाते है , शेष अंकुरों को बहते पानी में प्रवाहित कर दिया  जाता है।
कुछ लोग इन जवारों को शमीपूजन के समय शमी वृक्ष को अर्पित करते हैं और लौटते समय इनमें से कुछ जवारे केश में धारण करते हैं ।

प्रभुश्रीराम और भगवान शंकर का युद्ध!

* औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

भावार्थ:-और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता॥

आपने कभी सोचा है कि रामजी और शिवजी के बीच युद्ध भी हो सकता है? सभी जानते हैं कि रामजी के आराध्यदेव शिवजी हैं, तब फिर रामजी कैसे शिवजी से युद्ध कर सकते हैं? पुराणों में विदित दृष्टांत के अनुसार यह युद्ध श्रीरामजी के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया, यज्ञ का अश्व कई राज्यों को श्रीरामजी की सत्ता के अधीन किये जा रहे थें, इसी बीच यज्ञ का अश्व देवपुर पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का राज्य था।

वीरमणि ने भगवान् शंकरजी की तपस्या कर उनसे उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान मांगा था, महादेवजी के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था, जब यज्ञ का घोड़ा उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया, ऐसे में अयोध्या और देवपुर के बीच युद्ध होना तय था।

भगवान् शिवजी ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे गणों को भेज दिया, एक और रामजी की सेना तो दूसरी ओर शिवजी की सेना थी, वीरभद्र ने एक त्रिशूल से रामजी की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया, उधर भृंगी आदि गणों ने भी रामजी के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया, बाद में हनुमानजी भी जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने रामजी को याद किया।

अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीरामजी तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गयें, श्रीरामजी ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया, फिर श्रीरामजी ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल दिया, जब नंदी और अन्य शिवजी के गण परास्त होने लगे तब महादेवजी ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुये, तब श्रीरामजी और शिवजी में युद्ध छिड़ गया।

भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर कर शिवजी से कहा- हे प्रभु! आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिये हे देवाधिदेव महादेव! आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूंँ, ये कहते हुये श्रीरामजी ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान् शिवजी पर चला दिया, वो अस्त्र सीधा महादेवजी के ह्वदयस्थल में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गयें।

उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामजी से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिये जो इच्छा हो वर मांग लें, इस पर श्रीरामजी ने कहा- हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें पुनः जीवनदान प्रदान कर दीजिये, शिवजी ने कहा कि "तथास्तु" इसके बाद शिवजी की आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीरामजी को लौटा दिया और श्रीरामजी भी वीरमणि को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दियें।

ब्रह्माजी, विष्णुजी और शिवजी का जन्म एक रहस्य है, तीनों के जन्म की कथायें वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, लेकिन उनके जन्म की पुराण कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनके जन्म की वेदों में लिखी कथायें कितनी सच हैं, इस पर शोधपूर्ण दृष्टि की जरूरत है, यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है, अलग-अलग पुराणों में भगवान शिवजी और विष्णुजी के जन्म के विषय में कई कथायें प्रचलित हैं।

शिव पुराण के अनुसार भगवान् शिवजी को स्वयंभू माना गया है,  जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं, शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान् शिवजी अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुये जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी भगवान् विष्णुजी की नाभि कमल से पैदा हुये जबकि शिवजी भगवान् विष्णुजी के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं।

विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिवजी हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं, भगवान् शिवजी के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है, श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्माजी या विष्णुजी नहीं समझ पायें, उस जलते हुए खंभे से भगवान् शिवजी प्रकट हुयें।

यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी, विष्णु पुराण में शिवजी के बाल रूप का वर्णन मिलता है, विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी, उन्होंने इसके लिए तपस्या की, तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिवजी प्रकट हुयें, ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम ब्रह्मा नहीं है, इसलिये वह रो रहा है।

तब ब्रह्माजी ने शिवजी का नाम रुद्र रखा जिसका अर्थ होता है रोने वाला, शिवजी तब भी चुप नहीं हुए इसलिये ब्रह्माजी ने उन्हें दूसरा नाम दिया, पर शिवजी को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुये, इस तरह शिवजी को चुप कराने के लिए ब्रह्माजी ने आठ अलग-अलग नाम दियें और शिवजी आठ नामों (रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव) से जाने गयें, शिव पुराण के अनुसार ये नाम पृथ्वी पर लिखे गये थे।

“ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है, इस महामंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है, इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं, ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं, और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं, इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है, ये पूरे तंत्र के शुद्धीकरण के लिये बहुत ही शक्तिशाली माध्यम हैं।

जय महादेव!

आदि शंकराचार्य ने चारधाम पीठों की स्थापना की।

🙏🏻।। शंकरं शंकराचार्यम् केशवं बादरायणम् । सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ।। 🙏🏻

!! जय जय शंङ्कर हर हर शङ्कर !!

शिवावतार आद्यगुरु  शंकराचार्य जी पर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती,गोवर्धन (पुरी) पीठ का दैनिक भास्कर पर छपा पुराना लेख

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योग से ही भगवत् पाद आदि शंकराचार्य ने भारतवर्ष में चार पीठों की स्थापना की। ईसा से 507 वर्ष पहले भारत में आदि शंकराचार्य का आविर्भाव (जन्म) हुआ था।

वस्तु स्थिति यही है, हमारे सामने अकाट्य प्रमाण है, जिसके सामने सारे तर्क निष्फल हैं, कि जब आदि शंकराचार्य का आविर्भाव भारत में हुआ था तब इस्लाम और ईसाई दोनों पंथ और मत का कोई अस्तित्व नहीं था। आज धरती पर जो भी भू-भाग है, वो उस समय सनातन संस्कृति से आच्छादित हो चुका था।

पूरे विश्व की राजधानी भारत को स्थापित करते हुए, आदि शंकराचार्य ने चारधाम पीठों की स्थापना की।

उन्होंने भले ही भारत के चार कोनों में शंकराचार्य पीठों की स्थापना की हो, लेकिन सनातन धर्म के शासन का क्षेत्र पूरे विश्व को ही माना।
बौद्ध सम्राट सुधन्वा जो कि युधिष्ठिर की वंश परंपरा के थे, बौद्ध पंडितों और भिक्षुकों के संपर्क में आकर वे बौद्ध सम्राट के रुप में ख्याति प्राप्त होकर वे शासन कर रहे थे। सनातन वैदिक आर्य हिंदु धर्म का दमन कर रहे थे।
तब आदि शंकराचार्य ने उनके हृदय को शुद्ध किया और सार्वभौमिक सनातन हिंदु धर्म मूर्ति के रूप में उन्हें फिर प्रतिष्ठित किया।
उन्हें पथभ्रष्ट होने और अन्य राजाओं पर भी शासन करने के लिए आदि शंकराचार्य ने चार दिशाओं पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में चार धाम पीठों की स्थापना की। इसमें से पूर्व और पश्चिम की जो पीठें हैं वे समुद्र के तट पर हैं।

भौगोलिक दृष्टि से भगवान शंकराचार्य ने बद्रीनाथ में ज्योतिर्मठ की स्थापना की, जो पर्वत माला के बीच में है। रामेश्वर के श्रंगेरी क्षेत्र जो इस समय कर्नाटक में है, वहां उन्होंने मठ की स्थापना की।
उत्तर-दक्षिण के मठ पर्वत माला के बीच हैं और पूर्व-पश्चिम के मठ समुद्र किनारे।
चारों वेद और छह प्रकार के शास्त्र या कह सकते हैं 32 प्रकार की विद्याओं के प्रभेद और 32 कलाओं के प्रभेद, सबके सब सुरक्षित रहें, इसलिए एक-एक वेद से संबद्ध करके एक-एक शंकराचार्य पीठ की स्थापना की।
जैसे ऋग्वेद से गोवर्धन पुरी मठ (जगन्नाथ पुरी), यजुर्वेद से श्रंगेरी (रामेश्वरम्), सामवेद से शारदा मठ (द्वारिका) और अथर्ववेद से संबध्द ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) है। ब्रह्मा के चार मुख हैं, पूर्व के मुख से ऋग्वेद. दक्षिण से यजुर्वेद की, पश्चिम से सामवेद और उत्तर से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई है। इसी आधार पर शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की और उनको चार वेदों से जोड़ा है।

संन्यासी अखाड़े और परंपरा तो भारत में पहले भी थी, लेकिन आदि शंकराचार्य ने इन दशनामी संन्यासी अखाड़ों को भौगोलिक आधार पर विभाजित किया। दशनामी अखाड़े जिनमें सन्यासियों के नाम के पीछे लगने वाले शब्द से उनकी पहचान होती है। वन, अरण्य, पुरी, भारती, सरस्वती, गिरि, पर्वत, तीर्थ, सागर और आश्रम, ये दशनामी अखाड़ों के संन्यासियों के दस प्रकार हैं। आदि शंकराचार्य ने इनके नाम के मुताबिक ही इन्हें अलग-अलग दायित्व सौंपे। जैसे, वन और अरण्य नाम के संन्यासियों को, जो पुरी पीठ से संबद्ध है, इन्हें आदि शंकराचार्य ने ये दायित्व दिया कि हमारे वन (बड़े जंगल) और अरण्य (छोटे जंगल) सुरक्षित रहें, वनवासी भी सुरक्षित रहें, इनमें विधर्मियों की दाल ना गले।

पुरी, भारती और सरस्वती ये श्रंगेरी मठ से जुड़े हैं, सरस्वती सन्यासियों का दायित्व है हमारे प्राचीन उच्च कोटि के शिक्षा केंद्र, अध्ययन केंद्र सुरक्षित रहें, इनमें अध्यात्म और धर्म की शिक्षा होती रहे। भारती सन्यासियों का दायित्व ये है कि मध्यम कोटि के शिक्षा केंद्र सुरक्षित रहें, यहां विधर्मियों का आतंक ना हो। पुरी सन्यासियों का दायित्व तय किया कि हमारी प्राचीन आठ पुरियों जैसे अयोध्या, मथुरा और जगन्नाथपुरी आदि सुरक्षित रहें। तीर्थ और आश्रम नाम के संन्यासी जो द्वारिका मठ से सम्बद्ध हैं, तीर्थ सन्यासियों का दायित्व तीर्थों को सुरक्षित रखना और आश्रम सन्यासियों का काम हमारे प्राचीन आश्रमों की रक्षा करना था।

कुछ सालों पहले समुद्र के रास्ते से कुछ आतंकियों ने भारत वर्ष में घुसकर आतंक मचाया था। ये आदि शंकराचार्य की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) से सम्बद्ध सागर सन्यासियों को समुद्र सीमाओं की रक्षा का दायित्व दिया था। सेतु समुद्रम के कारण हमें ईंधन प्राप्त हो रहा है, इसी से समुद्र का संतुलन है, राम सेतु के टूटने से रामेश्वर का ज्योतिर्लिंग भी डूब जाएगा। यूपीए सरकार के समय इसे तोड़ने के प्रस्ताव भी बन रहे थे। संतों ने आगे आकर इसे रोका। आदि शंकराचार्य की दूरदर्शिता थी कि उन्होंने सैंकड़ों साल पहले ही सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात कर दिया था। गिरि और पर्वत नाम के सन्यासियों को पहाड़, वहां के निवासी, औषधि, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया। ये भी ज्योतिर्मठ से संबद्ध हैं।
इस तरह दस तरह के संन्यासियों को उनके दायित्व सौंप दिए। अगर ये दशनामी संन्यासी अपने दायित्यों को ठीक से समझते और चारों शंकराचार्य इनका ठीक से नेतृत्व करते तो आज भारत की ये दुर्दशा नहीं होती।

धर्मराज्य की पुनर्स्थापना और सम्राट सुधन्वा की स्थापना के बाद आदि शंकराचार्य ने भारतीय सनातन ग्रंथों को क्रमबद्ध किया। बौद्ध धर्म में जिन ग्रंथों को दूषित कर दिया गया था, उन सबको फिर से अपनी व्याख्याओं से शुद्ध किया। ब्रह्मसूत्र आदि की व्याख्या से सूत्र विज्ञान को विकसित किया !

!!  हर हर महादेव  !!