Wednesday, May 22, 2019

हिन्दू द्वेष व भारत विभाजन की कार्यशाला- जे एन यू

बौद्धिक कर्म के लिए ‘अवकाश’ एक प्राथमिक शर्त है I इसी अवकाश को प्रदान करने के लिए एक आदर्श, कृत्रिम परिवेश की रचना करने हेतु जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की परिकल्पना की गयी I जे एन यू द्वारा परिसर के अंदर ही सस्ती एवं रियायती भोजन, आवास एवं अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। यह सब भारत सरकार द्वारा उपलब्ध वित्तीय सहायता से संभव हुआ I कालांतर में गारंटी कृत ‘अवकाश’ की परिणिति से एक ‘कृत्रिम पारिस्थितिकी’ या ‘कैम्पस-हैबिटस’ (Campus-Habitus) की रचना हुई है, जो कि ऐसी विचार प्रक्रिया में छात्र-समुदाय के ‘सामाजीकरण’ को बढ़ावा देने के लिये अनुकूल है, जो वास्तविकता में सभी सुविधाओं के लिए भारतीय राज्य पर निर्भरता को एक कृत्रिम परिस्थिति न समझ कर स्वभाविक विशेषाधिकार (या नैसर्गिक विधान) समझता है. समस्त संसाधनों के लिए राज्य पर निर्भरता, “समाजवाद” की आड़ में अंततोगत्वा “राजकीय पूंजीवाद” है, और यही विचारधारा अपने अतिवादी अवतार “माओवाद” के रूप में प्रकट होती है। इस तरह के वैचारिक दृष्टिकोण का ‘परम लक्ष्य’, किसी भी प्रकार के साधन से ‘राज्य’ पर अपना कब्जा करना होता है।

भारतीय सन्दर्भ में ऐसा वैचारिक दृष्टिकोण ‘हिन्दू-द्वेष’ तथा ‘भारत-तोड़ो’ अभियान के रूप में अपघटित हो जाता है, और ऐसा दो ऐतिहासिक कारणों से संभव हुआ है. प्रथम कारण था नेहरु एवं उनके उत्तराधिकारियों का सोवियत मॉडल की तथाकथित समाजवादी अर्थ-व्यवस्था को भारत में लागू करने का निर्णय, एवं सोवियत ब्लाक से उनकी घनिष्ठता. इस कारण अकादमिक संस्थानों के ‘उत्पाद’ जो नेहरु एवं इंदिरा के राजनितिक एवं आर्थिक कार्यक्रम को एक वैचारिक कलेवर पहना सकें, ‘समाजवादी’ विचारधारा की फैक्ट्री के रूप में उच्च-शिक्षण एवं शोध संस्थाओं को बढावा दिया गया. यहाँ गौर करने की बात यह है कि भले ही साम्यवादी/समाजवादी विचारधारा के जो चाहे एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का विरोध करें उनके अन्य विचलन वाले रूप (नक्सली,मावोवादी) एक अतिवादी आन्दोलन के रूप में भारतीय राज्य से लड़ते हो, परन्तु भारतीय घरेलु राजनीति में कांग्रेस राजनीति (विभिन्न वर्गों को राष्ट्रीय हित की कीमत पर तुष्टिकरण करने की नीति तथा 'निर्धनवाद ' व राज्याश्रित रखकर प्रश्रय की बंदरबाट) को प्रति-संतुलित करने वाली संस्कृतिक व सामाजिक शक्तियों (यथा राष्टवादी शक्तियां जो तुष्टिकरण की नीति की विरोधी हैं , तथा मनो-वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, सामाजिक स्वावलंबन की पक्षधर रही है, से अँध-घृणा, अंततः साम्यवादियों/समाजवादीयों को राजनीति दृष्टि से कांग्रेस को ही परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देने पर विवश करती है । और "हिन्दू-द्वेष " व "भारतछोड़ो " अभियान में साम्यवादियों/समाजवादीयों के अपघटन का दूसरा ऐतिहासिक कारण स्वयं साम्यवादी/समाजवादी विचारधारा की दुर्बलता एवं अंतर्विरोध से उपजा है, राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था एवं विशाल-नौकरशाही तंत्र के इस्पाती ढांचे से उतपन्न गतिरोध, निम्न उत्पादकता व निम्न कार्यकुशलता के बोझ से सोवियत माॅडल धराशायी हो गया, नब्बे के दशक आते-आते वामपंथ व समाजवाद का किला विश्व में दो ध्रुवी-व्यवस्था का एक स्तंभ, सोवियत संघ धराशायी हो गया, भारत में भी राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से खुली अर्थव्यवस्था की ओर दिशा-परिवर्तन करने का कारण भी निम्न-उत्पादकता व निम्न-कार्यकुशलता ही थी, कुछ अंशो में राजीव गांधी की आर्थिक नीति व नरसिम्हा राव के अंतर्गत कांग्रेस द्वारा अपनायी गई नीतियों के मूल में यहीं तत्व प्रधान रहें , यह भारत के भू-मंडलीकरण की शुरूआत कही जाती है साम्यवादियों के लिए यह वैचारिक व राजनीतिक पराजय थी ।                                       भारतीय सन्दर्भ में साम्यवादियों को राजनीतिक दल के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन के विलोप होने से केवल घरेलू राजनीतिक गुणा-भाग तक सीमित कर दिया । इस बीच घरेलू राजनीति में राजनीतिक शक्ति-संतुलन में आये परिवर्तनों ने उन्हें राष्ट्रवादी शक्तियों के उभार से कमजोर हुई कांग्रेस को समर्थन देने की राजनीति या फिर कांग्रेस से इतर, 'अस्मिता' की राजनीति से उभरे दलों से तालमेल करने के दो भिन्न ध्रुवों में डोलने के लिए विवश कर दिया । अस्मिताओं के आंदोलनों के जोर पकड़ने पर साम्यवादियों/समाजवादीयों को भी अपने राजनीतिक नारे  को "क्लाश-स्ट्रगल " यानि "वर्ग-संघर्ष " से बदलकर "कास्ट-स्ट्रगल " यानि "वर्ण-संघर्ष " में परिवर्तित करना पड़ा । अब उन्होंने एक नयी प्रतिस्थापना दी कि भारतीय संदर्भ में "वर्ण " अथवा "जाति-भेद " ही सही अर्थों में "वर्ग-विभेद " हैं , और इस तथ्य को न समझ पाने के कारण ही उनका राजनीतिक पराभव हुआ है । ठीक यही निष्कर्ष साम्यवादी/समाजवादी राजनीतिक दलों के रूप में "क्रांतिकारी " परिवर्तन लाने में अपनी असफता से निराश वामपंथी-अतिवादी, हिंसक, भूमीगत आन्दोलन चलाने निकल पड़े वाम-समूहों ने भी निकाला, अस्मिता की राजनीति ने भारतीय संविधान व राज-व्यवस्था द्वारा नागरिक अधिकारों के संरक्षण हेतु सृजित कोटियों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) को अपरिवर्तनीय एवं परस्पर संघर्षरत नस्ली समूहों (यथा "दलित " , "आदिवासी ", "बहुजन ", "मूलनिवासी आदि) के अर्थों में रूढ़ कर दिया ।                                     परन्तु क्यां वास्तव में "अस्मिता " की राजनीति बिना किसी वैश्विक राजनीतिक संदर्भ के भारत में अचानक से हावी हो गई? और क्या यह राजनीति , एक-ध्रुवीय अमेरिकी वर्चस्व वाली निर्बाध-अर्थव्यवस्था वाली, भू-मंडलीय, विश्व-व्यवस्था में प्रवेश करते भारत में उसकी विशिष्ट घरेलू, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली समाज-व्यवस्था से उतपन्न तनावों की चरम परिणति थी ?                                    परन्तु जैसा कि सोवियत संघ के पतन से भी पहले साम्यवादियों की "विश्व-श्रमिकों " की क्रांतिकारी एकता का आवाहन , पश्चिमी-पूंजीवादी राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए कल्याणकारी-राज्य की भूमिका अपनाए जाने के बाद उन राष्ट्रों में श्रमिकों के उच्च जीवनस्तर के कारण फलीभूत न हो पाया, अतः पश्चिमी राष्ट्रों में वामपंथी विचारधारा ने आर्थिक आधार पर राजनीतिक विशलेषण के स्थान पर सामाजिक-सांस्कृतिक के आधार पर विश्व-दृष्टि विकसित कर नया राजनीतिक रूप धारण करना प्रारम्भ किया , जिसे नया वामपंथ (New Left) के नाम से जाना गया । नव-वामपंथ ने अपना राजनीतिक आधार पूँजी व श्रम के संघर्ष पर न टिका कर, अस्मिता व पहचान के संघर्षों को मूल आधार बनाकर खोजना शुरू किया , इसी दौर में नव-साम्राज्यवादी युद्धों (यथा वियतनाम युद्ध) से उपजी थकान व विश्व तेलसंकट के परिणाम स्वरूप अनिश्चितता व आर्थिक गिरावट से उतपन्न मोहभंग ने अमेरिका, व पश्चिमी राष्ट्रों में कई छात्र व सामाजिक आन्दोलन सामाजिक अशांति को व्यक्त करने लगे , नव-वामपंथ को श्रमिकों की क्रांतिकारी विश्व-एकता के अप्राप्य आदर्श के स्थान पर, यवा समूहों , जातीय समूहों, स्त्री मुक्ति आन्दोलनों व बाद में समलैंगिक अधिकार के आन्दोलनों, पर्यावरण आन्दोलनों इत्यादि में अपनी राजनीति के लिए अपना सामाजिक अधिकार दिखने लगा ।  और यहीं से पश्चिमी-पोषित नव-वामपंथ का भारत जैसे देशों में निर्यात अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए, पश्चिमी राष्ट्रों की विदेश नीति के कूट-अस्त्र के रूप में शामिल हो गया ।  जेएनयू जैसे संस्थानों में इस नयी राजनीतिक विचारधारा का स्वागत पूरे जोर-शोर से हुआ । क्यूंकि एक तो सोवियत संघ के अवसान व भारत की समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रयोग क्षीण होने से कमजोर हुई कांग्रेस के बदले नये आका पश्चिमी अकादमिक संस्थानों में संरक्षण देने में सक्षम थे, वहीं कुकुरमुत्तों की तरह उग आये एनजीओ (गौर सरकारी संस्थाओं) के माध्यम से चारागाह भी उपलब्ध करा रहें थे, एक अन्य सुविधा यह भी रही कि पुराने वामपंथ का निर्धनतावादी वंचितों की लाठी बने रहने का चोंगा भी उन्हें नहीं उतारना पड़ा ।                                                            'नव-वामपंथ ' के आकाओं के शास्त्रागार में उनका एक और भी पुराना कूट-अस्त्र था, अन्तर्राष्ट्रीय ईसाई मत में परिवर्तन कराने वाली संस्थाओं का वृहत तंत्र, मतान्तरित भारतीय इन राष्ट्रों के राजनीतिक प्रभाव के लिए एक मजबूत सामाजिक आधार प्रदान करते हैं । आपको शायद यह जानकर अटपटा लगेगा कि भारत के घरेलू मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर हस्ताक्षेप हेतु दबाव डलवाने के लिए , निपट कट्टर दक्षिणपंथी ईसाई संस्थाओं व उतने ही निपट , घोषित अनीश्वरवादी नव-वामपंथ अकादमिक बुद्धिजीवियों व उनके सहगामी एनजीओ का असहज तालमेल किस प्रकार संभव होता है?                इन्हीं दोनों कूट-अस्त्रों का प्रयोग कर अमेरिका के नेतृत्व में जोशुआ प्रोजेक्ट 1, जोशुआ प्रोजेक्ट 2,AD 2000 प्रोजेक्ट , मिशनरी संस्थाएं सीआईए (अमेरिकी गुप्तचर संस्थान) के मार्गदर्शन व दिशा-निर्देश में मतांतरण के कार्य में प्रवृत्त है, (तहलका जैसी पत्रिका जो घोषित तौर पर कांग्रेसी संरक्षण में चलती है , उसकी 2004 की खोजी रिपोर्ट में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, ) . इन संस्थाओं के पास भारत में निवास करने वाले असंख्य मानव समुदायों की परंपरा, विश्वास, रीति-रिवाजों तथा जनसंख्या वितरण को एक छोटे से छोटे क्षेत्र को भी पिनकोड में विभाजित कर जानकारी उन लोगों तक अपने संपर्क सूत्रों का त्वरित पहुँच रखने का विशाल तंत्र है ।   नयी मतान्तरण नीति को दो चरणों में विभाजित किया गया है , प्रथम चरण में भारत की सामाजिक विभेद की दरारों को चौड़ा करने का लक्ष्य रखा गया है । इसके लिए 'दलित ', 'अनार्य ', 'बहुजन ' , 'मूलनिवासी ', इत्यादि नयी अस्मिताओं का निर्माण कर 'हिन्दू-धर्म ' को तथाकथित आर्यों (जिन्हें बाहरी आक्रमणकारी प्रदर्शित किया गया व उनका साम्य आज के तथाकथित निम्न वर्ण/जातियों से मिलाया गया है) को सांस्कृतिक, सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से दास बनाये रखने की एक वर्चस्ववादी षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने का एक बलशाली अभियान चलाया हुआ है । इस व्यूह -योजना में कुछ हिन्दू धर्म के तत्वों को अंगीकार किया जाता है , व उन तत्वों में नये अर्थों को प्रक्षेपित कर दिया जाता है । यथा महाराष्ट्र में "शूद्रों-शूद्रों " के 'बलि-राजा ' को  ब्राह्मण देवता वामन द्वारा एक शहीद राजा के रूप में प्रचारित करना, (इसके लिए 'फुले ' जो e मिशनरी के विद्यालय के पढ़े हुए व उनसे प्रभावित एक समाज-सुधारक थे, उनके लिखे साहित्य को आधार बनाया जाता है) तदुपरांत शहीद राजा का साम्य बलिदान हुए , क्रास पे लटके , स्वर्ण के राजा यीशु से जोड़ना दुसरा चरण है । यही रणनीति महिषासुर को पहले जाति-विशेष (यादव) जो मूल निवासी कही गई , उसका राजा बताना, फिर दुर्गा देवी को ब्राहमणों की भेजी हुई गणिका बताना, फिर छल से न्यायप्रिय राजा महिषासुर के वध, को बलिदान हुए राजा यानि यीशु से साम्य स्थापित कर उत्तर भारत में दोहराई गई है ।                                     हिन्दू धर्म की परंपराओं से हिन्दू उप-समुदायों को विमुख करना प्रथम चरण है, और तब इन परंपराओं मे , नव-ईसाई साम्य-अर्थ भरना द्वितिय चरण है, परन्तु इस दुष्प्रचार से पहले जातिगत संगठनों का गठन मिशनरी रणनीति के हिस्से सदा से रहें हैं । सामाजिक न्याय के आदर्श का अपहरण मिशनरी अपनी कूटनीति चाल से कर चुके हैं । जेएनयू में भी 'प्रेम-चूंबन ' अभियान अथवा "किस आफ लव " नव-वामपंथ का उदाहरण है , व "गौ-मांस " व शूकर मांस " समारोह अथवा "बीफ एंड पोर्क फैस्टिवल " की मांग करना "महिषासुर शहादत " दिवस मनाना विजयादशमी में भगवान राम के पुतले को फांसी पर लटका कर , रामजी की ग्लानी से भरकर आत्म-हत्या करनेवाला पर्चा लिखना इत्यादि उदाहरण मिशनरी तंत्र द्वारा परोक्ष माध्यमों से संचालित, जेएन यू के जाति आधारित छात्रसंगठनों का नव-वाम संगठनों के सक्रिय से किया-धरा वितंडा -कार्य हैं । परन्तु जेएनयू में यह सब कार्यक्रम होने से और भी बड़ी गंभीर समस्या देश के लिए उतपन्न होने वाली है क्योंकि जेएनयू , पूर्व-वर्णित भारत विरोधी समूहों को "वैधता एवं अभ्यारण्य " दोनों प्रदान करता है , ऐसे समूहों के पक्ष में "सैधान्तिक परिचर्चा " को जन्म देकर , जेएनयू के विद्वान देश के विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों, संघ लोक सेवा आयोग के पाठ्यक्रम तथा न्यायपालिका के निर्णयों के लिए तार्किक आधार बनाकर; नौकरशाही , नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) व संचार माध्यम (मीडिया) के द्वारा संम्पूर्ण भारतीय राजनीति की मूल्य प्रणाली को प्रभावित करते हैं ।                                                       रविन्द्र बसेरा                                             😷😷😷🤠🤠🤠😨😨😨

Thursday, May 9, 2019

बौद्धिक आतंकवाद बनाम बौद्धिक खालीपन


कुछ बुनियादी विषयों पर चुनावी/दलीय राजनीति से ऊपर उठ कर ही विचार करना चाहिए। धर्म-रक्षा, देश-सुरक्षा, प्रजा को दुष्टों-अपराधियों के त्रास से मुक्त करना ऐसे विषय हैं। इसी श्रेणी में शिक्षा-संस्कृति की चिन्ता भी रहनी चाहिए। अतः देश में प्रभावी बौद्धिकता पर भी केवल ‘पार्टी’ दृष्टि से विमर्श करना व्यर्थ होगा।

समाज और संस्कृति बहुत व्यापक विषय हैं। इस के सामने राजनीति, राजनीतिक दल बहुत छोटे हैं। चाहे आज राज्यसत्ता हर चीज को प्रभावित कर रही है। फिर भी, जिस समाज की जैसी सांस्कृतिक स्थिति है, उसी से वहाँ राजनीति का स्तर भी बनता है। उदाहरण के लिए, जैसा चुनाव-प्रचार भारत में दिखता है, वैसा इंग्लैंड में असंभव है, जबकि दोनों संसदीय लोकतंत्र हैं। अतः सामाजिक वस्तुस्थिति ही निर्धारक तत्व है।

स्वतंत्र भारत में आम जनता और बौद्धिक वर्ग की समझ में भारी अंतर रहा, और बढ़ता गया है। सामान्य लोग धर्म-भावना, सहज न्याय, और शांतिपूर्ण जीवन को महत्व देते हैं। बाकी चीजें इसके अनुरूप चाहते हैं, किन्तु बौद्धिक वर्ग अपनी आइडियोलॉजिकल टेक को सर्वोपरि मानता है, वह भी संपूर्णतः विदेशी, कृत्रिम निर्मितियों से बनी और बदलती टेक। पहले सोशलिज्म-समर्थन और कैपिटलिज्म-निन्दा से शुरू होकर आज वह सेक्यूलरिज्म, इन्क्लूसिवनेस, मायनोरिटी, दलित, गे-राइट्स, आदि के समर्थन तथा मेजोरिटेरियनिज्म, हिन्दुइज्म, ब्राह्मणिज्म, आदि की निन्दा विरोध पर टिका है। चाहे इन के अर्थों पर उसमें कोई स्पष्टता न हो। न ही उसे जनता की चाह से मतलब है। उसे तो जिद है कि जनता को क्या चाहना चाहिए!

इस प्रकार, यह कोरी पार्टी-बंदी वाला आइडियोलॉजिकल विमर्श या प्रचार मात्र रहा है। इसीलिए जब जनता किसी ऐसी माँग या दल को समर्थन दे, जो बौद्धिक वर्ग को पसंद नहीं, तो यह अपने विचारों की समिक्षा के बदले माथा-पच्ची करता है कि कैसे जनता को भ्रम मुक्त किया जाए । इसी को कुछ लोग "बौद्धिक आतंकवाद " का नाम देते हैं । अर्थात वामपंथी, सेकुलरवादी, इस्लामवादी, अलगाववादी, चर्च-पोषित दलितवादी, नव-गांधीवादी आदि बौद्धिकों ने सत्ता के सहयोग और छल-प्रपंच से अपनी बौद्धिक स्थापनाओं को देश की शिक्षा और पत्रकारिता में स्थापित किया है । विरोधी स्वरों को लांछन, गाली-गलौज से अपदस्थ करना उनका हथियार रहा है । इसका सच में ऐसा आतंक है कि अच्छे-अच्छे लोग अपनी वास्तविक अनुभूति लिखने बोलने से बचते हैं ।                            इस रूप में "बौद्धिक आतंकवाद " गलत संज्ञा नहीं है ! दशकों से उक्त बौद्धिक गुटों ने विविध राजनीतिक दलों के साथ लग कर छल-बल से अनेक ऐसी बातें शिक्षा तंत्र में जमा दी हैं, जो सारतः हिन्दू-विरोधी, विखंडनकारी और हिंसक है! चूँकि नेतागण प्रायः दलीय-स्वार्थों से अधिक न देख सकने वाले रहें, इसलिए उन्होंने यह स्थिति बेरोक बनने दी ।               इसमें सत्ताधारी और विरोधी दलों का समान योगदान रहा! क्योंकि गंभीर मुद्दों, यानी जिसे राजनीतिक दल जिसे गंभीर समझते हैं, उन पर वे विपक्ष में रहकर भी प्रभावी हस्ताक्षेप करते हैं । अनेक उदाहरण हैं, जब कोई नेता या मामूली दल भी दबाव बनाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय तक उलटवा देता है । अतः यदि बुनियादी विषयोंमें हानिकारक मान्यताएं शिक्षा तंत्र में जमती गई तो कारण यह भी था कि विरोधी दलों जिन में राष्टवादी या हिन्दूवादी अग्रणी थे,  उन्होंने उस हानिकारक प्रक्रिया का नोटिस नहीं लिया उसे मामूली समझकर उसका विरोध करने में समय या शक्ति नहीं लगाई ।              और, यही असल विडंबना है आज वे राष्ट्रीय सत्ता में है । पहले भी थे । राज्यों की सत्ता में तो वे दसकों से रहे तब ये "बौद्धिक आतंकवाद " खत्म/कमजोर करने के लिए उन्होंने क्यां किया?         उत्तर है कि वे निपट सूरदास बने रहें ! विपक्ष में रहते हुए जैसा गैर-जिम्मेदार रूख रखा, सत्ता में आकर भी निष्ठापूर्वक वहीं प्रदर्शित किया एक बार नहीं बार-बार ।                                          हाल का उदाहरण ले । वर्षों से बड़ी जिम्मेदारी लिए एक राष्ट्रवादी नेता ने भरी सभा में टीवी कैमरों में कहा कि उन्हें गर्व है कि उनके समय में इतिहास , साहित्य, राजनीति आदि की शिक्षा पर कोई 'कन्ट्रोवेंसी ' नहीं हुई । अर्थात वे जिस बौद्धिक आतंकवाद की निंदा करते हैं , उसे उन्होंने बेदस्तूर रहने दिया । जो विषैली, फुटपस्त,अलगाववादी, हिन्दू-धर्म द्वेषी, झूठी बाते विद्यार्थियों को पिलाई जाती रही है, वह बेरोक टोक चलती रही है । बल्कि उसे सूरदासी भाव में उन्होंने उसे उत्साहपूर्वक वहाँ भी फैलाया जहाँ अबतक नहीं पहुँची थी । इस प्रकार "बौद्धिक आतंकवाद " के समक्ष संगठित विकल्प केवल बौद्धिक दृष्टिहीनता, खालीपन का है । बौद्धिक आतंक की निंदा करके , अपनी पार्टी के लिए कुछ और समर्थन बढ़ाने की चाह के सिवा कोई लक्ष्य नहीं है । वस्तुतः विडंबना इससे भी गहरी है । बौद्धिक आतंक की निंदा करने वाले उन्हीं हानिकारक विचारों को फैलाने की व्यवस्था करते हुए , ठसक से दावा करते हैं कि वे भारत को "विश्व-गुरू " बना देंगे । यह सचमुच अर्वेलियन परिदृश्य है । जिस भारतीय महान ज्ञान-भंडार का विश्व में सदियों से आदर रहा, और आज भी है, क्योंकि उसकी मुल्यवत्ता स्थाई है- उसी ज्ञान को यहाँ औपचारिक शिक्षा में पूरी तरह अछूत, उपेक्षित बनाए रखना । जबकि ऐसा नहीं कि 'सांस्कृतिक ' राष्ट्रवादियों ने शिक्षा में बिल्कुल हस्ताक्षेप नहीं किया । पर उनकी बुद्धि सिर्फ इस पर लगी कि किस प्रकार अपनी पार्टी नेताओं को नेहरू-गाँधी जैसा कुछ सत्ता-सम्मान दिलाये । बकायदा निर्देश दिये गये कि उनके नेताओं के बारे में 'कुछ-ज्यादा ' पढ़ाया जाना चाहिए । दुसरे शब्दों में, यदि उपनिषदों से लेकर विवेकानंद, श्री अरविंद और जदुनाथ सरकार, राम स्वरूप, सीताराम गोयल तक महान चिंतक, विद्वान शिक्षा में बहिष्कृत रहें तो कोई उज्र नहीं । बस इनके पार्टी नेताओं पर कुछ सच्ची-झूठी बाते शिक्षा-तंत्र में जुड़ जाएं तो इसी से वो कृतार्थ होते हैं । इसलिए गत पन्द्रह बीस सालों में जब जहाँ 'राष्ट्रवादीयों ' को मौका मिला, उन्होंने अपने नेताओं के नाम पर विश्वविद्यालय से लेकर विभाग, चेयर, पीठ बनाये तथा अनगिनत भवन, सड़क, स्टेशन आदि के नामकरण भी किये ।                            यहि चाह उन्होंने समाजिक जीवन में भी प्रदर्शित की । जिसने आजीवन एक मौलिक पुस्तक तक नहीं लिखी , उनके नाम पर दर्जनों राष्ट्रीय सेमिनार, गोष्ठियां,संकलन, ग्रंथ आदि प्रकाशित कराए गए । किसी को ॠषि, तो किसी को दृष्टा, चिंतक आदि बनाने की कोशिश हुई, मानो प्रचार से ही वो नेहरू गांधी के समकक्ष या उपर हो जायेंगे । इस बीच वे घातक विचार जो दसकों से हमारे नौनिहालों, युवाओं को मतिभ्रष्ट करते रहें है, वे यथावत चल रहे हैं । उन विचारों की असलियत दिखा सकने वाले सच्चे विद्वानों , उनकी मौलिक पुस्तकों, पर कभी कोई गोष्ठी 'सांस्कृतिक ' राष्ट्रवादीयों ने नहीं की , न उस मूल्यवान साहित्य को प्रसारित किया । यदि किसी ने करना भी चाहा, तो उसे भी रोका । वे अपनी पार्टी साहित्य को पर्याप्त समझते हैं । अतः "बौद्धिक आतंकवाद " की तुलना में "बौद्धिक खालीपन " ही विकल्प रूप में प्रस्तुत हैं । शेष लोग या तो राह किनारे बेबस तमाशबीन, या उनकी दया के मोहताज हैं ।                    🤔🤔👏👺👺👺🤠🤠🤠

Sunday, May 27, 2018

पहचानिए 'गद्दारों' को :-

तारीख बुधवार 23 मई 2018 । दिल्ली का पांच सितारा भव्य हॉल । प्रकाशक हार्पर कोलिन्स और लेखक असद दुर्रानी की पुस्तक का विमोचन समारोह ।  इसका विमोचन किया पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, ओमर अब्दुल्ला, बरखा दत्त, फारूख अब्दुल्ला, कपिल सिब्बल, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, यशवंत सिन्हा, शिव शंकर मेनन आदि ने । सभी नामों को ध्यान से पढ़िए । फिर जानिए पर्दे के पीछे का पूरा सच ।

दिल्ली में पुस्तक ‘द स्पाई क्रॉनिकल्स : रॉ, आईएसआई एंड द इलूजन ऑफ पीस’ का विमोचन समारोह रखा गया । इस पुस्तक को दुर्रानी के साथ सह लेखक के रूप में रॉ के पूर्व उपमुखिया ए एस दुलत और पत्रकार आदित्य सिन्हा द्वारा लिखे जाने का समाचार सामने आया । पहले तो जानिए दुर्रानी को ।असद दुर्रानी इस नाम से आप बेशक परिचित ना होंगे, लेकिन इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आप इस नाम को कभी भूल नही पाएंगे । असद दुर्रानी पाकिस्तान की खुफिया आतंकी एजेंसी ISI के चीफ रहे हैं। जी "आईएसआई"के चीफ , सही पढ़ा आपने ।

इन्ही दुर्रानी साहब ने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी एक किताब लिखी है जिसमें भारत को गलत ढंग से दर्शाया गया है। भारत की नीतियों को गलत, दादागिरी भरी व दुर्भावना से ग्रसित बताया है। इस पुस्तक में उन्होंने भारत की बेहतरीन खुफिया एजेंसी RAW और भारतीय सेना पर भी गंभीर झूठे आरोप लगाये हैं ।इस किताब में उन्होंने वर्तमान NSA चीफ अजित डोवाल की भी बहुत बुराई की है । इसमे वर्तमान भारत सरकार की नीतियों और मोदी की भी आलोचना की गई है । दुर्भाग्य देखिये । 2 कौड़ी का भाड़े का टट्टू असद दुर्रानी जो कल तक भारत मे आतंकवाद फैलाता था, जो कल तक भारत मे आतंकवादी भेजता था, जिसकी ISI ने कसाब को भेज कर मुम्बई पर हलमा करवाया था ; आज वही असद दुर्रानी जब सेनानिवृत हो गया तब इसने पाकिस्तान की सेना और ISI द्वारा फेंके गए टुकड़ों की ख़ातिर भारत के खिलाफ एक किताब लिख डाली । मजा देखिये कांग्रेस का पूरा समर्थन इस दुर्रानी को मिला ।

अब आगे सुनिए । इस पुस्तक को भारत मे भव्य पैमाने पर लांच करने का कार्यक्रम बना । असद दुर्रानी की भारत के प्रति नफरत और भारत मे आतंक फैलाने के इरादों को देखते हुए मोदी सरकार ने इन्हें बुक लॉन्च के लिए भारत आने के लिए वीज़ा देने से साफ इनकार कर दिया। अब जब वीजा नही तो दुर्रानी मियां भारत आ नही सकते । देश विरोधी बुक लॉन्च खटाई में पड़ गया। मने हिम्मत देखिये दुश्मन देश की खुफिया एजेंसी का चीफ भारत मे पहले तो आतंकवाद फैलाता है । फिर भारत के खिलाफ किताब लिखता है और फिर उसे भारत मे लॉन्च करने भी आने की हिम्मत दिखाता है । जानते हैं क्यों? क्योकि इस देश मे उसके कई दोस्त उसकी मदद को तैयार बैठे हैं। वे बाहें फैलाये उसे गले लगाने का इंतज़ार कर रहे हैं ।

असद दुर्रानी ने ये सब पैसे और अपने देश पाकिस्तान के प्रति निष्ठा के चलते किया । लेकिन पूरे विश्व मे जब भी कोई मोदी विरोध करे तो भला कांग्रेस कैसे चुप बैठ सकती है? सो कांग्रेस जो बाहें फैलाये ex ISI चीफ का इस्तकबाल करने का प्लान बनाया । लेकिन वीजा नही मिला । पूरी कांग्रेस बहुत मायूस हुई और इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी खत्म करने वाला कदम बता दिया । कांग्रेस के साथ इनकी पूरी गैंग भी मैदान में उतर आई । जब असद दुर्रानी को वीज़ा नही दिया गया तो कांग्रेस ने बाकायदा एक 5-Star होटल में आयोजन कर इस पुस्तक को रिलीज़ करवाया ।

कांग्रेस ने अब खुलकर इशारा किया है कि मोदी सरकार चाहें जितना ज़ोर लगा ले अगर कांग्रेस ने ठान लिया है कि वे किसी पाकिस्तानी को भारत बुला के रहेंगे तो वे हर हद्द को पार कर उसे बुलाएंगे।  और उसने  ऐसा किया भी । कांग्रेस ने कार्यक्रम में बाकायदा पूर्व ISI Chief असद दुर्रानी को वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिए इस पूरे कार्यक्रम का हिस्सा बनाया। यह एक चैलेंज है कि लो देशवासियों अब उखाड़ लो जो उखाड़ना है । हमने तो बुला लिया और किताब का विमोचन भी करवा दिया ।

आप जानिए इस हकीकत हो । ये सब कांग्रेसी मोदी विरोध में इतने अंधे हो चुके हैं कि अब देश विरोध तक पर उतर आए हैं? मोदी विरोध तो ठीक है पर भारत सरकार का विरोध? RAW का विरोध? भारतीय सेना का विरोध? भारतीय संवैधानिक संस्थाओं का विरोध कहाँ तक ठीक है?

हां पूर्व रॉ अधिकारी दुलत का शामिल होना एक गंभीर संकेत है । क्या पिछले 70 सालों से सुरक्षा तंत्र में इतने बड़े स्तर के अधिकारी भी बतौर काँग्रेसी एजेंट कार्य कर रहे थे । देखिये । समझिए ।

सादर
Post by
सुधांशु

Sunday, May 6, 2018

This will Make You Proud

When Hitler invaded Poland & started the World War II, 500 Polish women & 200 children were put on a ship to save them from the Germans. The ship was left in the sea by the Polish Army and the Captain was told to take them to any country where they can get shelter.  The last msg from their countrymen was "If we are alive or survive, we will meet again!"

The ship, filled with 500 refugee Polish women & 200 children were refused to come in by many European Ports, Asian Ports like Seychelles, Aden etc.  The ship continued to sail & somehow reached a harbour port of Iran. Yes so far away! There also they did not get any permission!

Finally, the ship wandering in the sea reached India and came to then port of Bombay. The British Governor also refused the ship to port!

Where the Maharaja of Jamnagar, "Jam Saheb Digvijay Singh" came to know  about this ship, he became truly concerned!

He allowed the ship to port in his kingdom at a port near Jamnagar! He not only gave shelter to 500 women but also gave their children free education in Balachiri in an Army School!

These refugees stayed in Jamnagar for nine years, till World War II lasted. They were well taken care of by Jam Saheb who regularly visited them and was fondly called Bapu by them!

Later these refugees returned to their own country.  One of the children of these refugees later became the Prime Minister of Poland.  Even today, the descendants of those refugees come to Jamnagar every year & remember their ancestors!

In Poland, the name of many roads in the capital of Warsaw are named after Maharaja Jam Saheb.  There are many schemes in Poland in his name. Every year Poland newspapers print articles about Maharaja Jam Saheb Digvijay Singh!

From the ancient times, the msg of India वसुधैव कुटुम्बकम (the world is a family) & its tolerance has been wellknown in the world. India was will remain with Indian Culture - Rich ,brave, tolerant, compassionate & genuinely humanitarian - plus pro life, pro good values & great respect!

This was an illustrious page from modern contemporary history, little known to many today even in India!

Thought that you might want to know!
.💐💐💐

Till date We were studying history set by the Britishers’ only.

Tuesday, March 6, 2018

Can electricity enter our body through the flash of a digital camera?

Yes 100% it can happen.

This is a true incident, which happened with a 21 year old boy studying engineering.

He died in Keshwani Hospital. He was admitted in the hospital in burnt conditions.

The reason:: He went to Amrawati on a study tour.  While coming back, he was waiting for train at railway station along with his friends.

Many of them were taking group photo in their mobiles with digital cameras.

This boy was also there and trying to take group photo. From where he was standing, he couldn't  cover the group. So he went a little back.

The place where he was standing, an electric wire with 40,000 volt was running  atop.

As soon as he pressed the button of digital camera, the electricity of 40,000 volt
entered the camera through the flash, then the fingers and then the whole body.

All this happened in a few seconds. 50% of his body was burnt. In that condition he was brought to Keshwani Hospital, and then to Mumbai in an ambulance.
He was unconscious for 1 and 1/2 days. As his body was 50% burnt, doctors were having less hope for him. Later on he died.

This can happen to anyone as we all use mobile. Are we learned and responsible ?

# Avoid using mobiles at petrol pumps.
# Avoid using mobiles when u r driving.
# When mobile is charging don't receive call.
# 1st remove the charger pin and then receive the call.
# When mobile is on charge don't put it on bed or wooden
furniture.
# pls don't use mobile/digital camera-flash at railway stations or any other place, where there is a High Voltage electricity transmission wire.

This is for your safety.

After reading pls share it.
Because of this some ones life can be saved.

Very imporant msg for all```