Wednesday, August 23, 2017

भारतीय इतिहास का विकृतिकरण....Bharat ka Itihas!


इस सम्बन्ध में भारतीय धर्मग्रन्थों की चर्चा हो रही थी आज बात करते हैं रामायण और महाभारत की

भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व सभी भारतीयों को अपने प्राचीन साहित्य में, चाहे वह रामायण हो या महाभारत, पुराण हो या अन्य ग्रन्थ, पूर्ण निष्ठा थी। इसके संदर्भ में ‘मिथ‘ की मिथ्या धारणा अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा ही फैलाई गई क्योंकि अपने उद्देश्य की प्राप्ति की दृष्टि से उनके लिए ऐसा करना एक अनिवार्यता थी। बिना ऐसा किए इन ग्रन्थों में उल्लिखित ऐतिहासिक तथ्यों की सच्चाई से बच पाना उनके लिए कठिन था। जबकि भारतीय ग्रन्थ यथा- रामायण, महाभारत, पुराण आदि भारत के सच्चे इतिहास के दर्पण हैं। इनके तथ्यों को यदि मान लिया जाता तो अंग्रेज लोग भारत के इतिहास-लेखन में मनमानी कर ही नहीं सकते थे। अपनी मनमानी करने के लिएही उन लोगों ने भारत के प्राचीन ग्रन्थों के लिए ‘मिथ‘, ‘अप्रामाणिक‘, ‘अतिरंजित‘, ‘अविश्वसनीय‘ जैसे शब्दों का न केवल प्रयोग ही किया वरन अपने अनर्गल वर्णनों को हर स्तर पर मान्यता भी दी और दिलवाई। फलतः आज भारत के ही अनेक विद्वान उक्त ग्रन्थों के लिए ऐसी ही भावना रखने लगे जबकि ये सभी ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण हैं।

रामायण

वाल्मीकि ने श्रीराम की कथा के माध्यम से उनसे पूर्व के लाखों-लाखों वर्षों के भारत के इतिहास को सामने रखते हुए भारत के स्वर्णिम अतीतका ज्ञान बड़े ही व्यापक रूप में वर्णित किया है। रामायण की कथा की ऐतिहासिकता के संदर्भ में महर्षिव्यास का महाभारत में यह कथन सबसे बड़ा प्रमाण है, जो उन्होंने वन पर्व में श्रीराम की कथा का उल्लेखकरते हुए कहा है - ‘राजन ! पुरातन काल के इतिहास में जो कुछ घटित हुआ है अब वह सुनो‘। यहाँ‘पुरातन‘ और ‘इतिहास‘, दोनों ही शब्द रामायण की कथा की प्राचीनता और ऐतिहासिकता प्रकट कर रहे हैं। यही नहीं, श्रीराम की कथा की ऐतिहासिकता का सबसे प्रबल आधुनिक युग का वैज्ञानिक प्रमाण अमेरिकाकी ‘नासा‘ संस्था द्वारा 1966 में और भारत द्वारा 1992 में छोड़े गए अन्तरिक्ष उपग्रहों ने श्रीराम द्वारा लंका जाने के लिए निर्मित कराए गए सेतु के समुद्र में डूबे हुए अवशेषों के चित्र खींचकर प्रस्तुतकर दिया है।

इस कथा की ऐतिहासिकता का ज्ञान इस बात से भी हो जाता है कि वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड के नवम् सर्ग के श्लोक 5 में बताया गया है कि जब हनुमान जी सीता जी की खोज के लिए लंका में रावण के भवन के पास से निकले तो उन्होंने वहाँतीन और चार दाँतों वाले हाथी देखे। श्री पी. एन. ओक के अनुसार आधुनिक प्राणी शास्त्रियों का मानना है कि ऐसे हाथी पृथ्वी पर थे तो अवश्य किन्तु उनकी नस्ल को समाप्त हुए 10 लाख वर्ष से अधिक समय हो गया। दूसरे शब्दों में श्रीराम की कथा दस लाख वर्ष से अधिक प्राचीन तो है ही साथ ही ऐतिहासिक भी है।

महाभारत

यह महर्षि वेदव्यास की महाभारत युद्ध के तुरन्त बाद ही लिखी गई एक कालजयी कृति है। इसे उनकी ही आज्ञा से सर्पसत्र के समय उनके शिष्य वैषम्पायन ने राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय को सुनाया था, जिसका राज्यकाल कलि की प्रथम शताब्दी में रहा था अर्थात इसकी रचना को 5000 साल बीत गए हैं। यद्यपि इसकी कथा में एक परिवार के परस्पर संघर्ष का उल्लेख किया गया है परन्तु उसकी चपेट में सम्पूर्ण भारत ही नहीं अन्य अनेक देश भी आए हैं। फिर भी सारी कथा श्रीकृष्ण के चारों ओर ही घूमती रही है। यह ठीक है कि आज अनेकलेखक श्रीकृष्ण के भू-अवतरण को काल्पनिक मान रहे हैं किन्तु वे भारत के एक ऐतिहासिक पुरुष हैं, इसका प्रमाण भारत का साहित्य ही नहीं आधुनिक विज्ञान भी प्रस्तुत कर रहा है।

समुद्र में तेल खोजते समय भारतीय अन्वेषकों को 5000 वर्ष पूर्व समुद्र में डुबी श्रीकृष्ण जी की द्वारिका के कुछ अवशेष दीखे। खोज हुई और खोज में वहाँ मिली सामग्री के संदर्भ में 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री द्वारा लोकसभा में दिए गएएक प्रश्न के उत्तर में बताया गया था कि वहाँ मिली सामग्री में 3 छिद्रित लंगर, मोहरें, उत्कीर्णित जार, मिट्टी के बर्तन, फ्लेग पोस्ट के साथ-साथ एक जेटी (घाट) आदि उल्लेखनीय हैं। महाभारत युद्ध का कालभारतीय पौराणिक कालगणना के अनुसार आज से 5144-45 वर्ष पूर्व का है। द्वारिका की खोज ने भारतीय पुरातन साहित्य में उल्लिखित श्रीकृष्ण और द्वारिका के साथ-साथ महाभारत की कथा को ‘मिथ‘ की कोटि से निकाल कर इसे इतिहास भी सिद्ध कर दिया है।

पुराण

पुराण भारतीय जन-जीवन के ज्ञान के प्राचीनतम स्रोतों में से हैं। इन्हें भारतीय समाज में पूर्ण सम्मान दिया जाता रहा है। पुराणों को श्रुति अर्थात वेदों के समान महत्त्व दिया गया है - ‘‘श्रुति-स्मृति उभेनेत्रे पुराणं हृदयं स्मृतम्‘‘ अर्थातश्रुति और स्मृति दोनों ही नेत्र हैं तथा पुराण हृदय। मनुस्मृति में श्राद्ध के अवसर पर पितरों को वेद और धर्मशास्त्र के साथ-साथ इतिहास और पुराणों को सुनाने के लिए कहा गया है। पुराणों की कथाओं का विस्तार आज से करोड़ों-करोड़ों वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इनके अनुसार सृष्टि का निर्माण आज से 197 करोड़ से अधिक वर्ष पूर्व हुआ था। पहले इस बात को कपोल-कल्पित कहकर टाला जाता रहा है किन्तु आज तोविज्ञान भी यह बात स्पष्ट रूप में कह रहा है कि पृथ्वी का निर्माण दो अरब वर्ष से अधिक पूर्व में हुआ था। दूसरे शब्दों में पुराणों में कही गई बात विज्ञान की कसौटी पर सही पाई गई है। अतः इनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। पुराणों से सृष्टि रचना, प्राणी की उत्पत्ति, भारतीय समाज के पूर्व पुरुषों के कार्य की दिशा, प्रयास और मन्तव्य के ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न मानव जातियों की उत्पत्ति, ज्ञान-विज्ञान, जगत के भिन्न-भिन्न विभागों के पृथक-पृथक नियमों आदि का भी पता चलता है। इनमें देवताओं और पितरों की नामावली के साथ-साथ अयोध्या, हस्तिनापुर आदि के राजवंशों का महाभारत युद्ध के 1504 वर्ष के बाद तक का वर्णन मिलता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि पुराणों की रचना महाभारत के 1500 वर्षों के बाद हुई है। विभिन्न भारतीय विद्वानों का कहना है कि पुराण तो प्राचीन हैं किन्तु उनमें राजवंशों के प्रकरण समय-समय पर संशोधित किए जाते रहे हैं। यही कारण है कि अलग-अलग पुराणों में एक ही वंश के राजाओं की संख्या में अन्तर मिल जाता है, क्योंकि यह वंश के प्रसिद्ध राजाओं की नामावली है वंशावली नहीं। उदाहरण के लिए- सूर्यवंश के राजाओं की संख्याविष्णु पुराण में 92, भविष्य में 91, भागवत में 87 और वायु में 82 दी गई है। लगता है संशोधनों केही समय इनमें कुछ बातें ऐसी भी समाविष्ट हो गई हैं जिनके कारण इनकी कुछ बातों की सत्यता पर ऊँगली उठा दी जाती है।

कल पुराणों के सम्बन्ध में कुछ और तथ्यों की बात करेंगे ...

ज्योतिषाचार्य जयकांत शर्मा कौण्डिन्य-8287374774

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