Wednesday, May 22, 2019

हिन्दू द्वेष व भारत विभाजन की कार्यशाला- जे एन यू

बौद्धिक कर्म के लिए ‘अवकाश’ एक प्राथमिक शर्त है I इसी अवकाश को प्रदान करने के लिए एक आदर्श, कृत्रिम परिवेश की रचना करने हेतु जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की परिकल्पना की गयी I जे एन यू द्वारा परिसर के अंदर ही सस्ती एवं रियायती भोजन, आवास एवं अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। यह सब भारत सरकार द्वारा उपलब्ध वित्तीय सहायता से संभव हुआ I कालांतर में गारंटी कृत ‘अवकाश’ की परिणिति से एक ‘कृत्रिम पारिस्थितिकी’ या ‘कैम्पस-हैबिटस’ (Campus-Habitus) की रचना हुई है, जो कि ऐसी विचार प्रक्रिया में छात्र-समुदाय के ‘सामाजीकरण’ को बढ़ावा देने के लिये अनुकूल है, जो वास्तविकता में सभी सुविधाओं के लिए भारतीय राज्य पर निर्भरता को एक कृत्रिम परिस्थिति न समझ कर स्वभाविक विशेषाधिकार (या नैसर्गिक विधान) समझता है. समस्त संसाधनों के लिए राज्य पर निर्भरता, “समाजवाद” की आड़ में अंततोगत्वा “राजकीय पूंजीवाद” है, और यही विचारधारा अपने अतिवादी अवतार “माओवाद” के रूप में प्रकट होती है। इस तरह के वैचारिक दृष्टिकोण का ‘परम लक्ष्य’, किसी भी प्रकार के साधन से ‘राज्य’ पर अपना कब्जा करना होता है।

भारतीय सन्दर्भ में ऐसा वैचारिक दृष्टिकोण ‘हिन्दू-द्वेष’ तथा ‘भारत-तोड़ो’ अभियान के रूप में अपघटित हो जाता है, और ऐसा दो ऐतिहासिक कारणों से संभव हुआ है. प्रथम कारण था नेहरु एवं उनके उत्तराधिकारियों का सोवियत मॉडल की तथाकथित समाजवादी अर्थ-व्यवस्था को भारत में लागू करने का निर्णय, एवं सोवियत ब्लाक से उनकी घनिष्ठता. इस कारण अकादमिक संस्थानों के ‘उत्पाद’ जो नेहरु एवं इंदिरा के राजनितिक एवं आर्थिक कार्यक्रम को एक वैचारिक कलेवर पहना सकें, ‘समाजवादी’ विचारधारा की फैक्ट्री के रूप में उच्च-शिक्षण एवं शोध संस्थाओं को बढावा दिया गया. यहाँ गौर करने की बात यह है कि भले ही साम्यवादी/समाजवादी विचारधारा के जो चाहे एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का विरोध करें उनके अन्य विचलन वाले रूप (नक्सली,मावोवादी) एक अतिवादी आन्दोलन के रूप में भारतीय राज्य से लड़ते हो, परन्तु भारतीय घरेलु राजनीति में कांग्रेस राजनीति (विभिन्न वर्गों को राष्ट्रीय हित की कीमत पर तुष्टिकरण करने की नीति तथा 'निर्धनवाद ' व राज्याश्रित रखकर प्रश्रय की बंदरबाट) को प्रति-संतुलित करने वाली संस्कृतिक व सामाजिक शक्तियों (यथा राष्टवादी शक्तियां जो तुष्टिकरण की नीति की विरोधी हैं , तथा मनो-वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, सामाजिक स्वावलंबन की पक्षधर रही है, से अँध-घृणा, अंततः साम्यवादियों/समाजवादीयों को राजनीति दृष्टि से कांग्रेस को ही परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देने पर विवश करती है । और "हिन्दू-द्वेष " व "भारतछोड़ो " अभियान में साम्यवादियों/समाजवादीयों के अपघटन का दूसरा ऐतिहासिक कारण स्वयं साम्यवादी/समाजवादी विचारधारा की दुर्बलता एवं अंतर्विरोध से उपजा है, राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था एवं विशाल-नौकरशाही तंत्र के इस्पाती ढांचे से उतपन्न गतिरोध, निम्न उत्पादकता व निम्न कार्यकुशलता के बोझ से सोवियत माॅडल धराशायी हो गया, नब्बे के दशक आते-आते वामपंथ व समाजवाद का किला विश्व में दो ध्रुवी-व्यवस्था का एक स्तंभ, सोवियत संघ धराशायी हो गया, भारत में भी राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से खुली अर्थव्यवस्था की ओर दिशा-परिवर्तन करने का कारण भी निम्न-उत्पादकता व निम्न-कार्यकुशलता ही थी, कुछ अंशो में राजीव गांधी की आर्थिक नीति व नरसिम्हा राव के अंतर्गत कांग्रेस द्वारा अपनायी गई नीतियों के मूल में यहीं तत्व प्रधान रहें , यह भारत के भू-मंडलीकरण की शुरूआत कही जाती है साम्यवादियों के लिए यह वैचारिक व राजनीतिक पराजय थी ।                                       भारतीय सन्दर्भ में साम्यवादियों को राजनीतिक दल के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन के विलोप होने से केवल घरेलू राजनीतिक गुणा-भाग तक सीमित कर दिया । इस बीच घरेलू राजनीति में राजनीतिक शक्ति-संतुलन में आये परिवर्तनों ने उन्हें राष्ट्रवादी शक्तियों के उभार से कमजोर हुई कांग्रेस को समर्थन देने की राजनीति या फिर कांग्रेस से इतर, 'अस्मिता' की राजनीति से उभरे दलों से तालमेल करने के दो भिन्न ध्रुवों में डोलने के लिए विवश कर दिया । अस्मिताओं के आंदोलनों के जोर पकड़ने पर साम्यवादियों/समाजवादीयों को भी अपने राजनीतिक नारे  को "क्लाश-स्ट्रगल " यानि "वर्ग-संघर्ष " से बदलकर "कास्ट-स्ट्रगल " यानि "वर्ण-संघर्ष " में परिवर्तित करना पड़ा । अब उन्होंने एक नयी प्रतिस्थापना दी कि भारतीय संदर्भ में "वर्ण " अथवा "जाति-भेद " ही सही अर्थों में "वर्ग-विभेद " हैं , और इस तथ्य को न समझ पाने के कारण ही उनका राजनीतिक पराभव हुआ है । ठीक यही निष्कर्ष साम्यवादी/समाजवादी राजनीतिक दलों के रूप में "क्रांतिकारी " परिवर्तन लाने में अपनी असफता से निराश वामपंथी-अतिवादी, हिंसक, भूमीगत आन्दोलन चलाने निकल पड़े वाम-समूहों ने भी निकाला, अस्मिता की राजनीति ने भारतीय संविधान व राज-व्यवस्था द्वारा नागरिक अधिकारों के संरक्षण हेतु सृजित कोटियों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) को अपरिवर्तनीय एवं परस्पर संघर्षरत नस्ली समूहों (यथा "दलित " , "आदिवासी ", "बहुजन ", "मूलनिवासी आदि) के अर्थों में रूढ़ कर दिया ।                                     परन्तु क्यां वास्तव में "अस्मिता " की राजनीति बिना किसी वैश्विक राजनीतिक संदर्भ के भारत में अचानक से हावी हो गई? और क्या यह राजनीति , एक-ध्रुवीय अमेरिकी वर्चस्व वाली निर्बाध-अर्थव्यवस्था वाली, भू-मंडलीय, विश्व-व्यवस्था में प्रवेश करते भारत में उसकी विशिष्ट घरेलू, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली समाज-व्यवस्था से उतपन्न तनावों की चरम परिणति थी ?                                    परन्तु जैसा कि सोवियत संघ के पतन से भी पहले साम्यवादियों की "विश्व-श्रमिकों " की क्रांतिकारी एकता का आवाहन , पश्चिमी-पूंजीवादी राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए कल्याणकारी-राज्य की भूमिका अपनाए जाने के बाद उन राष्ट्रों में श्रमिकों के उच्च जीवनस्तर के कारण फलीभूत न हो पाया, अतः पश्चिमी राष्ट्रों में वामपंथी विचारधारा ने आर्थिक आधार पर राजनीतिक विशलेषण के स्थान पर सामाजिक-सांस्कृतिक के आधार पर विश्व-दृष्टि विकसित कर नया राजनीतिक रूप धारण करना प्रारम्भ किया , जिसे नया वामपंथ (New Left) के नाम से जाना गया । नव-वामपंथ ने अपना राजनीतिक आधार पूँजी व श्रम के संघर्ष पर न टिका कर, अस्मिता व पहचान के संघर्षों को मूल आधार बनाकर खोजना शुरू किया , इसी दौर में नव-साम्राज्यवादी युद्धों (यथा वियतनाम युद्ध) से उपजी थकान व विश्व तेलसंकट के परिणाम स्वरूप अनिश्चितता व आर्थिक गिरावट से उतपन्न मोहभंग ने अमेरिका, व पश्चिमी राष्ट्रों में कई छात्र व सामाजिक आन्दोलन सामाजिक अशांति को व्यक्त करने लगे , नव-वामपंथ को श्रमिकों की क्रांतिकारी विश्व-एकता के अप्राप्य आदर्श के स्थान पर, यवा समूहों , जातीय समूहों, स्त्री मुक्ति आन्दोलनों व बाद में समलैंगिक अधिकार के आन्दोलनों, पर्यावरण आन्दोलनों इत्यादि में अपनी राजनीति के लिए अपना सामाजिक अधिकार दिखने लगा ।  और यहीं से पश्चिमी-पोषित नव-वामपंथ का भारत जैसे देशों में निर्यात अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए, पश्चिमी राष्ट्रों की विदेश नीति के कूट-अस्त्र के रूप में शामिल हो गया ।  जेएनयू जैसे संस्थानों में इस नयी राजनीतिक विचारधारा का स्वागत पूरे जोर-शोर से हुआ । क्यूंकि एक तो सोवियत संघ के अवसान व भारत की समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रयोग क्षीण होने से कमजोर हुई कांग्रेस के बदले नये आका पश्चिमी अकादमिक संस्थानों में संरक्षण देने में सक्षम थे, वहीं कुकुरमुत्तों की तरह उग आये एनजीओ (गौर सरकारी संस्थाओं) के माध्यम से चारागाह भी उपलब्ध करा रहें थे, एक अन्य सुविधा यह भी रही कि पुराने वामपंथ का निर्धनतावादी वंचितों की लाठी बने रहने का चोंगा भी उन्हें नहीं उतारना पड़ा ।                                                            'नव-वामपंथ ' के आकाओं के शास्त्रागार में उनका एक और भी पुराना कूट-अस्त्र था, अन्तर्राष्ट्रीय ईसाई मत में परिवर्तन कराने वाली संस्थाओं का वृहत तंत्र, मतान्तरित भारतीय इन राष्ट्रों के राजनीतिक प्रभाव के लिए एक मजबूत सामाजिक आधार प्रदान करते हैं । आपको शायद यह जानकर अटपटा लगेगा कि भारत के घरेलू मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर हस्ताक्षेप हेतु दबाव डलवाने के लिए , निपट कट्टर दक्षिणपंथी ईसाई संस्थाओं व उतने ही निपट , घोषित अनीश्वरवादी नव-वामपंथ अकादमिक बुद्धिजीवियों व उनके सहगामी एनजीओ का असहज तालमेल किस प्रकार संभव होता है?                इन्हीं दोनों कूट-अस्त्रों का प्रयोग कर अमेरिका के नेतृत्व में जोशुआ प्रोजेक्ट 1, जोशुआ प्रोजेक्ट 2,AD 2000 प्रोजेक्ट , मिशनरी संस्थाएं सीआईए (अमेरिकी गुप्तचर संस्थान) के मार्गदर्शन व दिशा-निर्देश में मतांतरण के कार्य में प्रवृत्त है, (तहलका जैसी पत्रिका जो घोषित तौर पर कांग्रेसी संरक्षण में चलती है , उसकी 2004 की खोजी रिपोर्ट में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, ) . इन संस्थाओं के पास भारत में निवास करने वाले असंख्य मानव समुदायों की परंपरा, विश्वास, रीति-रिवाजों तथा जनसंख्या वितरण को एक छोटे से छोटे क्षेत्र को भी पिनकोड में विभाजित कर जानकारी उन लोगों तक अपने संपर्क सूत्रों का त्वरित पहुँच रखने का विशाल तंत्र है ।   नयी मतान्तरण नीति को दो चरणों में विभाजित किया गया है , प्रथम चरण में भारत की सामाजिक विभेद की दरारों को चौड़ा करने का लक्ष्य रखा गया है । इसके लिए 'दलित ', 'अनार्य ', 'बहुजन ' , 'मूलनिवासी ', इत्यादि नयी अस्मिताओं का निर्माण कर 'हिन्दू-धर्म ' को तथाकथित आर्यों (जिन्हें बाहरी आक्रमणकारी प्रदर्शित किया गया व उनका साम्य आज के तथाकथित निम्न वर्ण/जातियों से मिलाया गया है) को सांस्कृतिक, सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से दास बनाये रखने की एक वर्चस्ववादी षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने का एक बलशाली अभियान चलाया हुआ है । इस व्यूह -योजना में कुछ हिन्दू धर्म के तत्वों को अंगीकार किया जाता है , व उन तत्वों में नये अर्थों को प्रक्षेपित कर दिया जाता है । यथा महाराष्ट्र में "शूद्रों-शूद्रों " के 'बलि-राजा ' को  ब्राह्मण देवता वामन द्वारा एक शहीद राजा के रूप में प्रचारित करना, (इसके लिए 'फुले ' जो e मिशनरी के विद्यालय के पढ़े हुए व उनसे प्रभावित एक समाज-सुधारक थे, उनके लिखे साहित्य को आधार बनाया जाता है) तदुपरांत शहीद राजा का साम्य बलिदान हुए , क्रास पे लटके , स्वर्ण के राजा यीशु से जोड़ना दुसरा चरण है । यही रणनीति महिषासुर को पहले जाति-विशेष (यादव) जो मूल निवासी कही गई , उसका राजा बताना, फिर दुर्गा देवी को ब्राहमणों की भेजी हुई गणिका बताना, फिर छल से न्यायप्रिय राजा महिषासुर के वध, को बलिदान हुए राजा यानि यीशु से साम्य स्थापित कर उत्तर भारत में दोहराई गई है ।                                     हिन्दू धर्म की परंपराओं से हिन्दू उप-समुदायों को विमुख करना प्रथम चरण है, और तब इन परंपराओं मे , नव-ईसाई साम्य-अर्थ भरना द्वितिय चरण है, परन्तु इस दुष्प्रचार से पहले जातिगत संगठनों का गठन मिशनरी रणनीति के हिस्से सदा से रहें हैं । सामाजिक न्याय के आदर्श का अपहरण मिशनरी अपनी कूटनीति चाल से कर चुके हैं । जेएनयू में भी 'प्रेम-चूंबन ' अभियान अथवा "किस आफ लव " नव-वामपंथ का उदाहरण है , व "गौ-मांस " व शूकर मांस " समारोह अथवा "बीफ एंड पोर्क फैस्टिवल " की मांग करना "महिषासुर शहादत " दिवस मनाना विजयादशमी में भगवान राम के पुतले को फांसी पर लटका कर , रामजी की ग्लानी से भरकर आत्म-हत्या करनेवाला पर्चा लिखना इत्यादि उदाहरण मिशनरी तंत्र द्वारा परोक्ष माध्यमों से संचालित, जेएन यू के जाति आधारित छात्रसंगठनों का नव-वाम संगठनों के सक्रिय से किया-धरा वितंडा -कार्य हैं । परन्तु जेएनयू में यह सब कार्यक्रम होने से और भी बड़ी गंभीर समस्या देश के लिए उतपन्न होने वाली है क्योंकि जेएनयू , पूर्व-वर्णित भारत विरोधी समूहों को "वैधता एवं अभ्यारण्य " दोनों प्रदान करता है , ऐसे समूहों के पक्ष में "सैधान्तिक परिचर्चा " को जन्म देकर , जेएनयू के विद्वान देश के विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों, संघ लोक सेवा आयोग के पाठ्यक्रम तथा न्यायपालिका के निर्णयों के लिए तार्किक आधार बनाकर; नौकरशाही , नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) व संचार माध्यम (मीडिया) के द्वारा संम्पूर्ण भारतीय राजनीति की मूल्य प्रणाली को प्रभावित करते हैं ।                                                       रविन्द्र बसेरा                                            

No comments: