Wednesday, July 24, 2019

मनुस्मृति की जाँच (भाग−२) :-

राममोहन राय का फर्जी धर्मशास्त्र

(विकिपेडिया हिन्दू−विरोधी संस्था है,पाश्चात्य प्रोफेसरों और उनके भारतीय चेलों को ही प्रामाणिक मानने वाले इस लेख का कुछ अंश प्रस्तुत है,हू−ब−हू हिन्दी अनुवाद मैंने किया है जिसमें अपनी ओर से मैंने जो कुछ भी जोड़ा है वह ब्रैकेट में है । इस लेख में और भी कई रोचक तथ्य हैं,जैसे कि राममोहन राय जब फर्जी धर्मशास्त्र बनवा रहे थे तब घर से यह कहकर लापता थे कि बौद्ध धर्म सीखने के लिये तिब्बत गये हैं किन्तु एक ईसाई मिशनरी से पैसा ऐंठकर फर्जी धर्मशास्त्र बना रहे थे!सती प्रथा पर उनके “योगदान” पर मैं पहले ही प्रकाश डाल चुका हूँ । हमारे पाठ्यपुस्तकों से वे बातें भी छुपायी जाती हैं जो पाश्चात्य प्रोफेसर भी सही मानते हैं!)

https://en.wikipedia.org/wiki/Ram_Mohan_Roy#Christianity_and_the_early_rule_of_the_East_India_Company_(1795%E2%80%931828)
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इस अवधि के दौरान राम मोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी करते हुए एक राजनीतिक आन्दोलनकारी के रूप में काम किया ।

1792 में ब्रिटिश बैपटिस्ट मोची विलियम केरी ने अपनी प्रभावशाली मिशनरी पुस्तक प्रकाशित की :-

“असभ्यों के धर्मान्तरण वाले दायित्वों के निर्वाहन हेतु क्रिस्चियनों द्वारा साधनों का उपयोग” ।
(ईसाई पादरियों के लिये हिन्दुओं की गणना असभ्यों ⁄जंगलियों में  थी ।)

1793 में विलियम केरी भारत में बसने के लिए आये (लार्ड कॉर्नवालिस के गवर्नर जनरल बनते ही)। उनका उद्देश्य था भारतीय भाषाओं में बाइबिल का अनुवाद, प्रकाशन और वितरण; तथा भारतीयों में ईसाईयत का प्रचार ।  उन्होंने महसूस किया कि "मोबाइल" (यानी सेवा वर्ग =ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नौकरी में कार्यरत) ब्राह्मण और पण्डित इस प्रयास में उनकी मदद करने में सबसे अधिक कारगर थे, और विलियम केरी ने उन्हें इकट्ठा करना शुरू कर दिया । विलियम केरी  ने बौद्ध और जैन धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया ताकि सांस्कृतिक सन्दर्भ में ईसाई धर्म के पक्ष में बेहतर तर्क दे सके ।

1795 में केरी ने एक संस्कृत विद्वान तान्त्रिक साई  हरदाना विद्यावागीश से सम्पर्क किया, जिन्होंने बाद में उन्हें राम मोहन राय से मिलवाया जिन्हें अंग्रेज़ी सीखने की इच्छा थी (राम मोहन राय केवल २४ वर्ष के थे ; इनको राजा की उपाधि १८२८ में मुगल बादशाह ने दी किन्तु मुगल बादशाह को तब अधिकार ही नहीं था किसी को राजा बनाने का । ९ वर्ष की अवस्था में ही राममोहन मदरसे भेजे गये पढ़ने के लिये!)।

1796 और 1797 के बीच केरी, विद्यावागीश और रॉय की तिकड़ी ने "महानिर्वाण तन्त्र" ग्रन्थ की रचना की और इसे "एक सच्चे परमेश्वर" का धर्मग्रन्थ घोषित किया (क्योंकि हिन्दुओं के सारे देवी−देवता ‘झूठे’ थे)। कैरी की भागीदारी उनके विस्तृत रिकॉर्ड में दर्ज नहीं की गई और वह केवल 1796 में संस्कृत सीखने की रिपोर्ट करते हैं (अर्थात् "महानिर्वाण तन्त्र" ग्रन्थ की रचना एक गुप्त षडयन्त्र थी जिस कारण इसके रचना की रिपोर्टिंग नहीं की गयी) और 1797 में एक व्याकरण पूरा किया, उसी वर्ष उन्होंने बाइबिल के कुछ भाग (जोशुआ से जॉब तक) का अनुवाद किया जो एक बड़ा कार्य था । अगले दो दशकों के लिए "महानिर्वाण तन्त्र" नियमित रूप से संवर्धित किया गया । इसके न्याय−सम्बन्धी अध्यायों का उपयोग बंगाल में ब्रिटिश  न्यायालयों में जमीन्दारी के सम्पत्ति विवादों पर निर्णय के लिए हिन्दू कानून के रूप में किया गया ।

(१७९३ में लार्ड कॉर्नवालिस ने भारत की पञ्चायती व्यवस्था को नष्ट करने के लिये “स्थायी बन्दोबस्त” द्वारा ब्रिटिश−भक्त नये जमीन्दार वर्ग को खड़ा करना आरम्भ किया,उसे स्थापित करने के लिये फर्जी हिन्दू धार्मिक कानून की आवश्यकता थी ताकि पञ्चायतों और पुराने भूस्वामियों की जमीनें हड़पकर नये जमीन्दारों को दी जा सके,वरना एक मोची पादरी और उसके दो हिन्दू नौकरों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी क्यों पूछती!तुर्क−पठान और मुगल कालों में लूट−पाट और हत्यायें हुईं किन्तु पुरातन भारतीय सामाजिक व्यवस्था को जीवन्त रखने वाली पञ्चायती व्यवस्था की आर्थिक रीढ़ को तोड़ने का कार्य राममोहन राय की ईसाई टीम ने ही किया ।)

किन्तु कुछ ब्रिटिश मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों को सन्देह होने लगा और इसके उपयोग (साथ ही हिन्दू कानून के स्रोतों के रूप में पण्डितों पर निर्भरता) को शीघ्र ही घटा दिया गया । (क्योंकि यूरोप में संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन जोड़ पकड़ने लगा था जिस कारण भाण्डा फूट गया कि हिन्दू कानून का आधारग्रन्थ  "महानिर्वाण तन्त्र" नहीं बल्कि “मनुस्मृति” है;तब नया कुतर्क यह दिया गया कि विद्यावागीश जैसे पण्डित बेईमान हैं अतः हिन्दू कानून के बारे में किसी भी पण्डित से राय नहीं लेनी चाहिये!केरी महोदय और राममोहन राय पर कोई आरोप नहीं लगा,केवल एक भाड़े के वाममार्गी तान्त्रिक को बलि का बकरा बनाकर सारे पण्डितों को अविश्वसनीय कहा गया ।) विलियम केरी की टीम से विद्यावागीश कुछ समय के लिए हट गए, लेकिन राम मोहन रॉय से विद्यावागीश ने सम्बन्ध बनाए रखा ।

1797 में राम मोहन कलकत्ता पँहुचे और एक "बनिया" (साहूकार) बन गए, जो अपने साधनों से अधिक खर्च करने वाले कम्पनी के (एय्याश) अंग्रेजों को उधार देते थे (दो वर्ष में ही कितना पैसा कमा लिया,“राजा” की उपाधि भी खरीद ली −− बिना किसी राज पाट के!)। राम मोहन ने अंग्रेजी अदालतों में पण्डित के रूप में अपना कार्य जारी रखा और उससे जीवन यापन करने लगे (सारे हिन्दू विवादों में “महानिर्वाण तन्त्र” को धर्मशास्त्रीय प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करने की फीस वसूलकर । विभिन्न मुकदमों में उस ग्रन्थ में मनमाना फेरबदल करते रहते थे ताकि पैसे वालों के मन मुताबिक “हिन्दू कानून” दिखाकर पैसा कमा सकें ।)। उन्होंने ग्रीक और लैटिन सीखना आरम्भ किया (क्योंकि पादरियों में उन भाषाओं का अधिक महत्व था)। ⋅⋅⋅ ⋅⋅⋅

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